________________ 104 वर्ण, जाति और धर्म जैनधर्ममें गोत्रका स्थान___ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि ब्राह्मणधर्ममें गोत्रको जी व्यवस्था बनी उससे उत्तरकालमें जैनसाहित्य मी प्रभावित हुआ है / जैनधर्ममें प्रतिपादित गोत्रकी आध्यात्मिक व्याख्या और व्यवस्थाको भुलाकर एक तो उसका सम्बन्ध चार वर्णों के साथ स्थापित किया गया। दूसरे उसका सम्बन्ध रक्तपरम्पराके साथ स्थापित कर लोकमें प्रचलित कुल और वंशकी सामाजिक मान्यताको अवास्तविक महत्त्व दिया गया। यह तो हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं कि भारतवर्षमें प्रचलित चार वर्गों का सम्बन्ध केवल : आजीविकाके साथ ही नहीं रहा। जो लोकप्रचलित जिस कुलमें जन्म लेता है वह उस नामसे पुकारा जाने लगा। किन्तु इस कारणसे किसीको ऊँच और किसीको नीच मानना इसे जैनधर्म स्वीकार नहीं करता। गाय आदि ऐसे बहुतसे पशु हैं जिनका जीवन निर्दोष होता है और इसके विपरीत हिंस्र पशुओंका जीवन हिंसाबहुल देखा जाता है। फिर भी लोकमें सिंहको श्रेष्ठ माना जाता है। किसी मनुष्य विशेषकी श्रेष्ठता प्रख्यापित करने के लिए सिंहकी उपमा दी जाती है / ऐसा क्यों होता है ? कारण स्पष्ट है। एक तो वह निर्भय होकर एकाकी विचरण करता है। दूसरे उसमें शौर्य गुणकी प्रधानता होती है। यही कारण है कि उसके मुख्य दोषकी ओर लक्ष्य न देकर इन गुणोंको मुख्यता दी जाती है। यह सिंहका उदाहरण है। हमें विविध वर्गों में बटे हुए मानवसमाजको इसी दृष्टिकोणसे समझनेकी आवश्यकता है / जैनपुराणोंमें द्वीपायन मुनिको कथा आती है। दीर्घ काल तक मुनिधर्मका उत्तम रीतिसे पालन करने के बाद भी वे द्वारकादाहमें निमित्त हो नरकगामी हुए थे। इसके विपरीत पुराणोंमें एक दूसरी कथा यम चाण्डालकी आती है। वह चाण्डाल जैसे निकृष्ट कर्मद्वारा अपनी आजीविका करता था। किन्तु जीवनके अन्तमें मुनिके उपदेशसे प्रभावित . होकर अहिंसा व्रतको स्वीकार कर तथा मरणभय उपस्थित होनेपर भी उसका उत्तम रीतिसे पालन कर वह कुछ कालके लिए स्वीकार किये गये अहिंसा व्रत के