________________ विपरीतकरणी मुद्रा विपरीतकरणी मुद्रा विपरीतकरणी मुद्रा नामक आसन करें। (आसनों का अध्याय देखें) नेत्रों को बन्द कर खेचरी मुद्रा लगाइये / उज्जायी प्राणायाम कीजिये / पूरक करते समय श्वसन एवं चेतना को मणिपुर चक्र से विशुद्धि चक्र की ओर जाते हुए अनुभव कीजिये। रेचक करते समय चेतना को विशुद्धि चक्र पर केन्द्रित कीजिये। द्वितीय पूरक के साथ पुनः यह अनुभव कीजिये कि चेतना एवं श्वसन - प्रवाह मणिपुर चक्र से विशुद्धि चक्र की ओर है। क्षमता के अनुपात में क्रिया की पुनरावृत्ति कीजिये। समय प्रथम दिन कुछ सेकेण्ड तक अभ्यास करें। धीरे - धीरे अवधि बढ़ाइये। 15 मिनट या अधिक देर तक अभ्यास किया जा सकता है। आसन और मुद्रा या किसी एक के अभ्यास के अन्त में। सम्भव हो तो ध्यान के पूर्व / भोजन के कम से कम तीन घंटे उपरान्त ही यह मुद्रा कीजिये। सीमाएँ उच्च रक्तचाप, हृदय की गम्भीर बीमारी या चुल्लिका ग्रन्थि के बढ़ जाने पर अभ्यास का निषेध है। लाभ इससे शरीर में प्राण के प्रवाह में सूक्ष्म परिवर्तन आता है। विशेषतः यह अभ्यास सूक्ष्म शरीर में स्थित प्राण के केन्द्र अर्थात् मणिपुर चक्र से प्राणशक्ति का प्रवाह प्रचुर मात्रा में पवित्रता के केन्द्र याने विशुद्धि चक्र की ओर करता है। इस प्रकार समस्त सूक्ष्म शरीर के शुद्धिकरण में सहायता मिलती है। अतः यह अभ्यास भौतिक स्तर पर बीमारी आदि के प्रकटीकरण को रोकता है / यह ओज-शक्ति को ऊपर के केन्द्रों में ले जाने की एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा है। 316 .