________________ तथा प्रश्वास वायु के वेग से सम्बन्धित पूर्व खण्ड देखिये)। कुछ समय तक श्वसन - क्रिया को पूर्णतः रोकने के लिए प्राणायाम की कुछ क्रियाओं में कुम्भक (श्वास रोकने) का अभ्यास भी किया जाता है। इस प्राणायाम क्रिया से शरीर में प्राण के संचालन पर नियंत्रण प्राप्त होता है / इससे विचार -प्रणाली में नियंत्रण आता है / मन में शान्ति आती है। यह आध्यात्मिक अभ्यास के लिए प्राथमिक आवश्यकता है क्योकि यदि मन हमेशा परेशानियों से घिरा रहेगा तो उसका सम्बन्ध उसकी सूक्ष्म आत्मा से नहीं हो सकता। दायीं नासिका छिद्र से बहने वाली श्वास वायु का निकट सम्बन्ध पिंगला नाड़ी में प्रवाहित प्राण शक्ति से रहता है। दोनों नासिका छिद्रों में श्वास - गति समान रहने पर इड़ा एवं पिंगला में भी सन्तुलन आ जाता है / इस अवस्था में प्राणमय शरीर में स्थित सुषुम्ना नामक सबसे महत्वपूर्ण नाड़ी में प्राण का प्रवाह आरंभ हो जाता है / इस अवस्था में गहन ध्यान की सम्भावना रहती है, जिससे साधक को ध्यान की उच्च अवस्था की प्राप्ति होती है। इड़ा और पिंगला में प्राण के प्रवाह को संतुलित करना भी प्राणायाम का एक उद्देश्य है / इस प्रकार आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए आध्यात्मिक मार्ग खुल जाता है। स्वामी शिवानन्दजी ने अपनी पुस्तक 'प्राणायाम विज्ञान' में लिखा है"श्वसन, नाड़ी-प्रवाह तथा आंतरिक प्राण या जीवन शक्ति के नियंत्रण के मध्य घनिष्ठ संबंध है / भौतिक स्तर पर प्राण गति एवं क्रियाओं के रूप में तथा मानसिक स्तर पर विचार के रूप में दिखाई देता है। प्राणायाम वह माध्यम है जिसके द्वारा योगी अपने छोटे से शरीर में समस्त ब्रह्माण्ड के जीवन के अनुभव का प्रयास करता है तथा सृष्टि की समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर पूर्णता की प्राप्ति का प्रयत्न करता है।" इस प्रकार इसमें कोई आशंका नहीं कि आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए ज्ञान की खोज में प्राणायाम बहुत आवश्यक है। 264