________________ यह द्वितीय विधि है / कभी-कभी दाहिने छिद्र की अपेक्षा बायें छिद्र में श्वास - प्रवाह अधिक होता है। इस अवस्था में व्यक्ति विशेष को यह विचार करना चाहिए कि शारीरिक कार्य करे या न करे / इस स्थिति में कार्य नहीं, वरन चिंतन करना चाहिए / यदि श्वास-प्रवाह दाहिने नासिका छिद्र में अपेक्षाकृत अधिक है तब व्यक्ति को शारीरिक कार्य अधिक तथा चिंतन कम करना चाहिए / स्वरयोगानुसार श्वास-प्रवाह में क्रमशः परिवर्तन होता रहता है / कभी दाहिने छिद्र से श्वास अधिक चलती है तो कभी बायें नासिका छिद्र से / कहा जाता है कि यह परिवर्तन लगभग प्रति घण्टे होता है / इस प्रकार मनुष्य की परिवर्तनशील क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। दिन के समय पूरक क्रिया की अवधि अधिक शक्तिशाली रहती है। इस कारण मानवीय संबंध इन्द्रियों से तथा बाह्य वातावरण से रहता है। इसके विपरीत रात्रि में रेचक क्रिया की अवधि अधिक प्रभुत्वपूर्ण होती है तथा मनुष्य शांति की दुनिया में प्रवेश कर आराम करता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्मावलम्बी वज्रासन में बैठकर श्वास-प्रश्वास पर एकाग्रता करते हैं। वे पूरक के समय मन को स्थिर करते हैं तथा रेचक के समय उसे शून्य पर ले आते हैं। प्राण- शरीर एवं आत्मा के मध्य की कड़ी प्राण के माध्यम से ही शरीर एवं आत्मा के मध्य संबंध स्थापित होता है / 'प्राण' चेतना एवं भौतिक तत्त्व को जोड़ने वाली शक्ति है / इसे तत्त्व एवं शक्ति का अत्यन्त सूक्ष्म रूप कहा जा सकता है- जो शरीर में व्याप्त नाड़ियों या जीवन-शक्ति नलिकाओं द्वारा स्थूल शरीर को क्रियाशील बनाती है। जीवन-शक्ति प्रदान कर यह शरीर को जीवित रखती है; अन्यथा वह निर्जीव अवस्था को प्राप्त हो जायेगा / प्राण एवं श्वसन- वायु का गहरा सम्बन्ध है, लेकिन वे दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं / जो वायु हम श्वसन द्वारा लेते हैं, वह अधिक सूक्ष्म प्राण को वहन करती है / आध्यात्मिक साधकों के लिए प्राणायाम किस तरह उपयोगी है ? - प्रथमतः प्राणायाम प्राणमय कोष में प्राण के संचार को विरोधरहित तथा . स्वतंत्र करता है / इससे इस शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता मिलती है जो कि आध्यात्मिक साधक के लिए सर्वाधिक महत्त्व की वस्तु है। प्राणायाम से साधकों को जो दूसरा लाभ होता है, वह है 'मन की स्थिरता' / प्राणायाम की कुछ विधियों में श्वसन - क्रिया को क्रमशः धीमा किया जाता है और प्रश्वास की वायु का वेग कम हो जाता है। (मनुष्य की क्रिया. 263