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________________ पूरक हैं। तंत्र साधारण लोगों के लिये एक मार्ग है जिस पर चलकर सांसारिक वस्तुओं के भोग की क्षमता रखते हुये वे अपने को सांसारिक सीमाओं और बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं / तंत्र में सर्वप्रथम व्यक्ति को अपने शरीर और मन की सीमाओं को नाप लेना आवश्यक है / इसके बाद तंत्र ऐसी विधियों का निर्देश करता है जिससे भौतिक चेतना का दैवी चेतना में और फिर शुद्ध-मुक्त चेतना में विस्तार किया जाता है। शरीर, मन और चेतना को शुद्ध करने के लिये अनेक प्रकार के आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्धों का अभ्यास किया जाता है / यह स्पष्ट है कि इस प्रकार योग की विधियों का मूल तंत्र में है। __ ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर योगासनों के प्रथम व्याख्याकार महान योगी गोरखनाथ थे / इनके समय में योग-विज्ञान लोगों में अधिक लोकप्रिय नहीं था / गोरखनाथ जी ने अपने निकटतम शिष्यों को सभी आसन सिखाये / उस - काल के योगी समाज से बहुत दूर पर्वतों और जंगलों में रहा करते थे। वहाँ वे एकान्त में तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे। उनका जीवन प्रकृति पर आश्रित व बिल्कुल सादा एवं सरल था / जानवर ही योगियों के महान शिक्षक थे, क्योंकि जानवर सांसारिक समस्याओं एवं रोगों से मुक्त जीवन व्यतीत करते हैं। जानवरों को किसी डॉक्टर की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही इलाज के लिये उन्हें दवाएँ चाहिए / प्रकृति उनकी एक मात्र सहायक है / योगी, ऋषि और मनियों ने जानवरों की गतिविधियों पर बड़े ध्यान से विचार कर उनका अनुकरण किया। इस प्रकार वन के जीव-जन्तुओं के अध्ययन से योग की * अनेक विधियों का विकास हुआ / क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि योग रोग - उपचार की एक प्राकृतिक एवं प्रभावशाली प्रणाली है? इस युग में योग सारे संसार में फैल रहा है। इसका ज्ञान हर एक की सम्पत्ति बन रहा है। आज डॉक्टर और वैज्ञानिक योग के अभ्यास की सलाह देते हैं। अब प्रत्येक व्यक्ति अनुभव कर रहा है कि योग केवल निर्जनवासी - साधु-संन्यासियों के लिये ही नहीं, परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है। आसनों का वर्गीकरण साधारण तथा व्यस्त व्यक्ति के लिये इस पुस्तक में दिये हुए सभी आसनों को करना अत्यावश्यक तथा संभव नहीं है / अतः आसनों को तीन समूहों में विभक्त कर दिया गया है।
SR No.004406
Book TitleAasan Pranayam Mudra Bandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanand Sarasvati
PublisherBihar Yog Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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