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________________ अध्यायः 24] सुश्रुतसंहिता / 487 वैशयमापदही तु श्लेष्मान्ययाधयन् / " पाठमनार्षमाचक्षते; अन्येऽवयवगतं सर्वसर शीतोष्णस्निग्ध- | चूर्णेन तेजोवत्याश्च दन्तानित्यं विशोधयेत् // रूक्षादिभिरप्रशाम्यन्तं शोणितावसेचनेन साधयेदिति विषयभेदेन | एकैकं घर्षयेद्दन्तं मृदुना कूर्चकेन च // 8 // विधिनिषेधौ चरितार्थों कुर्वन्ति // 12 // दन्तशोधनचूर्णेन दन्तमांसान्यबाधयन् // भवति चात्र तहोर्गन्ध्योपदेहौ तु श्लेष्माणं चापकर्षति // 9 // पिष्टान्नमम्लं लवणानि मा वैशंद्यमन्नाभिरुचिं सौमनस्यं करोति च // : मृदं दिवास्वप्नमजाङ्गलं च // न खादेद्गलताल्वोष्ठजिह्वारोगसमुद्भवे // 10 // स्त्रियो घृतं तैलपयोगुरूणि अथास्यपाके श्वासे च कासहिकावमीषु च // शोफं जिघांसुः परिवर्जयेत्तु // 13 // | दुर्बलोऽजीर्णभक्तश्च मूर्तोि मदपीडितः // 11 // इति सुश्रुतसंहितायां चिकित्सास्थाने शोथचि | शिरोरुजार्तस्तृषितः श्रान्तः पानक्लमान्वितः॥ कित्सितं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // | अदिती कर्णशूली च दन्तरोगी च मानवः // 12 // पिष्टानमित्यादि / 'स्त्रियो गुडं' इति क्वचित् पाठः॥१३॥ शिरस उत्तमाजलात्तत्पूर्वमेव विवृण्वन्नाह-तत्रेत्यादि / अव्रणं कोटरादिरहितम् / प्रत्यग्रं नवम् / त्रिवर्गातं त्रिसुगन्धिइति श्रीडल्ह(ह)णविरचितायां निबन्धसंग्रहाख्यायां सुश्रुत नाऽऽक्कं लिप्तं दन्तकाष्ठं कृत्वा, तेनेत्यध्याहारः / दौर्गन्ध्याद्यपकव्याख्यायां चिकित्सास्थाने त्रयोविंशतितमोऽ र्षणं तत्फलम् ; उपदेहः उपलेपः / वैशा निर्मलता / मदः ___ध्यायः // 23 // पूगफलेनेव // 4-12 // 'जिहानिर्लेखनं रौप्यं सौवर्ण वार्शमेव च // चतुर्विंशतितमोऽध्यायः। तन्मलापहरं शस्तं मृदु श्लक्ष्णं दशाङ्गुलम् // 13 // अथातोऽनागताबाधाप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः 1 | मुखवैरस्यदौर्गन्ध्यशोफजाड्यहरं सुखम् // यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः॥२॥ दन्तदायकरं रुच्यं स्नेहगण्डूषधारणम् // 14 // अनागत ईषदागतः, नञ् अत्र ईषदर्थे; आबाधा दुःखं जिह्वेत्यादि / मृदु कोमलम् / श्लक्ष्णं मसूणम् / जाज्य ध्याधिरित्यर्थः। तस्य प्रतिषेधश्चिकित्सितम् / तचिकित्सितं | जडता स्तब्धतेत्यर्थः // 13 // 14 // स्वस्थवृत्तमहोरात्रिकाचारक्रम इत्यर्थः, यतोऽहोरात्रेऽपि षण्णा-क्षीरवृक्षकषायैर्वा क्षीरेण च विमिश्रितैः // मृतूनामन्तर्भावः // 1 // 2 // भिल्लोटककषायेण तथैवामलकस्य वा // 15 // उत्थायोत्थाय सततं स्वस्थेनारोग्यमिच्छता // प्रक्षालयेन्मुख नेत्रे स्वस्थः शीतोदकेन वा // धीमता यदनुष्ठेयं तत् सर्व संप्रवक्ष्यते // 3 // नीलिकां मुखशोषं च पिडकां व्यङ्गमेव च // 16 // उत्पायोत्थायेति वीप्सायां, प्रत्यहमितिकर्तव्यताख्यापनाये- | रक्तपित्तकृतान् रोगान् सद्य एव विनाशयेत् // त्येके; अन्ये तु उत्पायेति अभियोज्येत्यर्थः, अभितो क्षीरवृक्षा न्यग्रोधादयः / क्षीरवृक्षकषायगण्ड्षेण रकदुष्टियोगमभिसंयोगं कृखा; अभियोग उद्यमः, उत्पूर्वस्य स्वाधातो-रपि निवर्तते / बहिर्मुखप्रक्षालनमाह-भिल्लेत्यादि / भिल्लोटको . रमियोगार्थवाद / सततम् अहरहरित्यर्थः; यदा तु उत्थायो- हि पर्वते केदारभूमौ प्रसिद्धः। गयी तु भिल्लोटककषायमस्थायेस्यस्याहरह इति व्याख्यानं तदा सततमिति व्यर्थ स्थात् / न्तर्मुखप्रक्षालनमाह / आमलकस्य कषायेण नेत्रे प्रक्षालयेत्, 'यदनुष्ठेयमस्कन' इति केचित् पठन्ति, अस्कन्नम् अवश्य- | उभयं शीतोदकेन वा // 15 // 16 ॥मित्यर्थः // 3 // | सुखं लघु निरीक्षेत दृढं पश्यति चक्षुषा // 17 // तत्रादौ दन्तपवनं द्वादशाङ्गुलमायतम् // | मतं स्रोतोञ्जनं श्रेष्ठं विशुद्ध सिन्धुसंभवम् // कनिष्ठिकापरीणाहमृज्वग्रन्थितमवणम् // 4 // दाहकण्डूमलनं च दृष्टिक्लेदरुजापहम् // 18 // अयुग्मग्रन्थि यचापि प्रत्यग्रं शस्तभूमिजम् // | तेजोरूपावहं चैव सहते मारुतातपौ // अवेक्ष्यतु च दोषं च रसं वीर्य च योजयेत् // 5 // | न नेत्ररोगा जायन्ते तस्मादञ्जनमाचरेत् // 19 // कषायं मधुरं तिक्तं कटुकं प्रातरुत्थितः॥ 1 रुचिमनेषु वैशचं दन्तजिहौष्ठतालुषु // पाटवं सौमनस्यं च निम्बश्च तिक्तके श्रेष्ठः कषाये खदिरस्तथा // 6 // | लाघवं चोपपादयेत् // न च स्याद्लताल्वोष्ठजिलारोगसमुद्भवः / मधूको मधुरे श्रेष्ठः करजः कटुके तथा // क्षौद्रव्योषत्रिवर्गातं सतैलं सैन्धवेन च // 7 // सुगन्धि वदनं च स्याछालास्तम्भनमेव च। मुखप्रसेकशमनं धर्म पुष्टिकरं नृणाम् / लाघवं चेन्द्रियाणां स्यान्नित्यं खादेत्ततो नरः। १'तत्रादितो दन्तकाई' इति पा०। १०प्रन्धिमथावणम्' पाटवं 'वक्रस्य' इस्यध्याहारः। प्रसेकः थूत्करणम् / इति पा० / इति पा०॥ J२'मुखपाकम्पासकासशोषहिकावमी पति पामिछोरोषः।
SR No.004403
Book TitleSushrut Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushrut Maharshi, Narayanram Acharya
PublisherChaukhambha Orientaliya
Publication Year
Total Pages922
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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