________________ अध्यायः 46] सुश्रुतसंहिता। 231 शोभाजनकभेदः; 'शुण्ठ' इत्यत्र क्वचित् (पठ्यते), स च तीक्ष्णेत्यादि / जीरकद्वयं शुक्लपीतमेदेन / कारवी कृष्ण. खनामख्यातः; फणिज्झकः ‘फाणिज' इति लोके, अन्ये मरुब- जीरक उत्तरापथे प्रसिद्धः; करवी यवानीत्येके, अजमोदेत्यपरे, कमाहुः; सर्षपराजिके प्रसिद्ध कुलाहलो मुण्डितिका; अवगुत्थं अन्ये राजिकामाहुः / उपकुञ्चिका स्थूलजीरक ईषत्कृष्णो वेगनामा, काकाद नीत्यर्थः; गण्डीरोऽपि द्विविधः स्थलजो जल- 'बृहज्जीरक' इति लोके // 229 ॥श्चेति, तत्र स्थलजो हरितशाकं; तिलपर्णिका चोरकः, श्रीहस्ति- | भक्ष्यव्यञ्जनभोज्येषु विविधेष्ववचारिता // 230 // नीत्यपरे; वर्षाभूः पुनर्नवा; चित्रकमूलकलशुनाः प्रसिद्धाः; आर्द्रा कुस्तुम्बरी कुर्यात् स्वादुसौगन्ध्यहृद्यताम् // कलायोऽत्र त्रिपुटकमेदः, त्रिपुटकस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात् , सा शुष्का मधुरा पाके स्निग्धातृड्दाहनाशनी२३१ केचित् पुनरुक्तभयादग्रेतनं पाठं न मन्यन्ते, तेषां मतेऽत्र दोषघ्नी कटुका किंचित् तिक्ता स्रोतोविशोधनी // कलायस्त्रिपुटकः; पलाण्डुलशुनभेदः / प्रभृतिग्रहणादेवंजातीया / भक्ष्याणि वटकादीनि, व्यञ्जनानि शाकादीनि संस्कृतानि, म्यपराणि // 221 // भोज्यानि अन्नयवाग्वादीनि, अवचारिता प्रक्षिप्ता / आर्द्रा कुस्तुकटून्युष्णानि रुच्यानि वातश्लेष्महराणि च // म्बरीति पुष्पफलोपेतो हरितधान्यविटप आर्द्रा कुस्तुम्बरीत्युकृतान्नेषूपयुज्यन्ते संस्कारार्थमनेकधा // 222 // च्यते, अल्लेति लोके // 230 // 231 // - एषां सामान्यगुणमाह-करनीत्यादि / कृतान्नेषु मुद्यू- जम्बीरः पाचनस्तीक्ष्णः कृमिवातकफापहः॥२३२॥ षादिषु // 222 // सुरभिर्दीपनो रच्यो मुखवैशद्यकारकः॥ तेषां गुर्वी स्वादुशीता पिप्पल्यार्दा कफावहा॥ कफानिलविषश्वासकासदौर्गन्ध्यनाशनः॥ 233 // शुष्का कफानिलनी सा वृष्या पित्ताविरोधिनी 223 पित्तकृत् पार्श्वशूलघ्नः सुरसः समुदाहृतः॥ तेषां मध्ये केषांचिद्गुणविशेषमाह तेषामित्यादि / कफावहा | तद्वत्तु सुमुखो शेयो विशेषाद्रनाशनः // 234 // खवर्गापेक्षया / पित्ताविरोधिनी ईषंत्पित्तविरोधिनी, ईषत्पि- कफघ्ना लघवो रूक्षास्तीक्ष्णोष्णाः पित्तवर्धनाः॥ त्तशमनीत्यर्थः; 'पित्तप्रकोपणी' इति केचित् पठन्ति, व्याख्या- कटुपाकरसाश्चैव सुरसार्जकभूस्तृणाः॥२३५॥ नयन्ति च “सा पित्तशमनी पूर्व दर्शिता वीर्यवादिना / शास्त्र- मधुरः कफवातघ्नः पाचनः कण्ठशोधनः॥ कारेण निर्दिष्टा सा सत्यं पित्तकोपनी॥ यद्वाऽऽर्दा पित्तशमनी विशेषतः पित्तहरः सतिक्तःकासमर्दकः॥ 236 // शुष्का पित्तप्रकोपणी"-इति // 223 // कटुः सक्षारमधुरः शिग्रुस्तिक्तोऽथ पिच्छिलः॥ स्वादुपाक्यामरिचं गुरु श्लेष्मप्रसेकि च॥ मधुशिः सरस्तिक्तः शोफनो दीपनः कटुः // 237 // कटूष्णं लघु तच्छुष्कमवृष्यं कफवातजित् // 224 // जम्बीर इत्यादि / सुरसे द्वे श्वेतकृष्णकुसुमे / प्रथमा श्वेता, नात्युष्णं नातिशीतं च वीर्यतो मरिच सितम्॥ | इयं तु कृष्णेति न पोनरुक्त्यप्रसङ्गः // 232-237 // गुणवन्मरिचेभ्यश्च चक्षुष्यं च विशेषतः // 225 // | विदाहि बद्धविण्मूत्रं रूक्षं तीक्ष्णोष्णमेव च // नातीत्यादि / सितं मरिच शोभाजनकबीजं, 'शुक्लमपि मरि- | त्रिदोषं सार्षपं शाकं गाण्डीरं वेगनाम च // 238 // चमस्ति' इत्येके / गुणवन्मरिचेभ्यश्चेति मरिचेभ्यः सकाशाद- | चित्रकस्तिलपर्णी च कफशोफहरे लघू॥ तिशयगुणकारीत्यर्थः // 224 // 225 // वर्षाभूः कफवातघ्नी हिता शोफोदरार्शसाम् 239 नागरं कफवातघ्नं विपाके मधुरं कटु // विदाहीत्यादि / त्रिदोषं सार्षपमिति 'कफनं सार्षपं शाकमावृष्योष्णं रोचनं हृद्यं सस्नेहं लघु दीपनम् // 226 // सुरं शाकमेव च' इति कचित् / तत्र आसुरी राजिका कफानिलहरं स्वयं विबन्धानाहशूलनुत् // | // 238 // 239 // कटूष्णं रोचनं हृद्यं वृष्यं चैवार्द्रकं स्मृतम् // 227 // लघूष्णं पाचनं हिङ्ग दीपनं कफवातजित् // | कटुतिक्तरसा हृद्या रोचनी वह्निदीपनी // | सर्वदोषहरा लध्वी कण्ठ्या मूलकपोतिका // 240 // कट स्निग्धं सरं तीक्ष्णं शूलाजीर्णविबन्धनुत् // 228 // " महत्तहरु विष्टम्भि तीक्ष्णमामं त्रिदोषकृत् // नागरमित्यादि / सस्नेहमीपस्नेहम् / लघु आकादिति बोद्ध- तदेव स्नेहसिद्धं तु पित्तनु कफवातजित् // 241 // व्यम् / विबन्धानाहशूलनुदिति विवन्धो वाताद्यप्रवृत्तिः, आनाह त्रिदोषशमनं शुष्कं विषदोषहरं लघु // उदरापूरः // 226-228 // 1 'कृमिवातविषापहः' इति पा० / 2 'हृद्यः' इति पा० / तीक्ष्णोष्णं कटुकं पाके रुच्यं पित्ताग्निवर्धनम् // 3 'पित्तलः' इति पा० / 4 'कफ शार्षपं शाकं मासूर शाकमेव कटु श्लेष्मानिलहरं गन्धाढ्यं जीरकद्वयम् // 229 // कारवी करवी तद्वद्विज्ञेया सोपकुश्चिका॥ | च' इति ताडपत्रपुस्तके पाठः। 5 स्निग्धसिद्धं' इति पा० / 6 श्लेष्मकृद्वातपित्तजित् / शुष्कं तु शोफशमनं' इति ताडपत्र१'नातिरूक्षं च' इति पा० / | पुस्तके पाठः।