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________________ 172 : : नरभवटुिंतोवनयमाला चारित्र, ज्ञानप्रमुख कार्योनो अने आर्यपुरुषोना मनुष्यपणासाथे संबंध होवाथी मनुष्यपणानी उत्तमता नि:संदेह सिद्धज छे / / 11 / / इच्चाइ जत्थ लाहा हवंति भव्वाण सव्वसुपसत्था / सुरगइविसेसरूवा तेणं चिअ उत्तमा मणुआ / / 12 / / . भावार्थ:-इत्यादि जेने विर्षे देवगतिथी पण विशेष प्रकारना उपर बतावेल सर्व सुप्रशस्तलाभोनो संभव होवाथी मनुष्यपणानी उत्तमता निःसंदेह सिद्धज छे, केमके देवगतिमां पण उपर कहेला प्रशस्तलाभो मली शकता नथी / / 12 / / लघृण माणुसत्तं धम्मेसु पमाययंति जे जीवा / लहिऊण कप्परुक्खं ते दुत्था जायणाहीणा / / 13 / / भावार्थ:-जे जीवो महामूल्यवान् मनुष्यभव पामीने प्रमादकरी खरा धर्मना लाभथी वंचित रही जाय छे तेओ कल्पवृक्ष पामीने पण माग्या विना दरिद्र रहेनार मनुष्यो जेवाज छे / / 13 / / अहवा अणोरपारे जलनिहिकल्लोलए सुनिम्मग्गा / बोहित्थं लक्ष्णवि अणिस्सिया ते जणा लोए / / 14 / / भावार्थ:-अथवा अपारजलथी भरेला समुद्रमां. डुबनाराओने नावडु मल्या छतां पण नहि नीकली शकनारा मनुष्य जेवा सम्यक्त्वने प्राप्त करीने
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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