SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृष्टांतोपसंहारोपदेश: : : 171 भावार्थ:-मनःपर्यव, केवलज्ञान अने केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र अने आहारकशरीर ए मनुष्यगति शिवाय अन्य गतिमां न मली शकतां होवाथी मनुष्यगति अत्यंत श्रेष्ठ छे / / 8 / / जंघाविज्जाचारण-लद्धीविण्णाणसिज्झणाइया / लाहा मणु अभवंमि तेणं चिय उत्तमा मणुआ / / 9 / / भावार्थ:-जंघाचारण अने विद्याचारणनी लब्धी, विज्ञान, मुक्ति (मोक्षगमन) विगेरेना लाभो मनुष्यगति शिवाय अन्यगतिमां प्राप्त न थतां होवाथी अने मनुष्यगतिमां मलतां होवाथी मनुष्यगति उत्तमपणुं स्पष्ट छे // 9 // .. उत्तमसुपत्तदाणं चउरंगिजं च तहय धम्माणं / तह सव्वविरइलाही तेणं इह माणवा सिट्ठा // 10 // भावार्थः-उत्तमसुपात्रमा दान तेमज धर्मना चार अंगो (दान, शील, तप, भावना) तथा सर्वविरतिनो लाभ. मनुष्य गतिमांज थतो होवाथी मनुष्यगति अवश्य आदर्शरूप छे अर्थात् श्रेष्ठ छे // 10 // खेत्तकुलजाइभासा-दसणचारित्तणाणकम्माणं / अज्माण जत्थ लाहो तेणं चिअ उत्तमा मणुआ // 11 // भावार्थ:-उत्तमक्षेत्र, कुल, जाति, भाषा, दर्शन,
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy