________________ (2) प्राशाएं और स्वछन्द बुद्धि के आचरण ही दुःख के . मूल हैं / इनका त्यागकर कर्म शल्य से मुक्त होना चाहिए। (3) अधिकांश जीव स्त्री सेवन में प्राशक्त होकर उसी सुख को सब कुछ समझकर भव भ्रमण एवं दुःख परम्परा की वृद्धि करते हैं। भगवान कहते हैं कि यही जीवों को महामोहित करने का एक सांसारिक केन्द्र हैं। पांचया उद्देशकः (1) मुनि को छोटे-बड़े सभी दोषों से रहित आहारादि की गवेषणा करते हुए उदर पूर्ति करना चाहिए। अपने लिए क्रयविक्रय किए पदार्थ नहीं लेना, न ही क्रय-विक्रय सम्बन्धी गृहस्थ प्रवृत्ति में भाग लेना। (2) भिक्षार्थ जाने वाला भिक्षु योग्य गुणों से सम्पन्न हो एवं लोभ प्राशक्ति से रहित रहे। (3) रूप प्रादि में प्राशक्त न हो एवं काम भोगों के दारुण विपाक को समझकर सदा उन पर विजय प्राप्त करता हुआ विचरण करें। (4) अन्दर-बाहर एक स्वभाव से रहे और शरीर के बाहर या भीतर सभी अशुचि पदार्थ भरे हैं इस चिन्तन की उपस्थिति से सदा विषय भोगों से विरक्त रहे। (5) संसार के जीवों की माया, प्राशक्ति और प्रारम्भ प्रवृति को तथा उसके परिणाम-विपाक में प्राप्त दशानों को देखकर एवं चितनकर के मुनि संयम में लीन रहे / षष्ठम उद्देशकः (1) संयम स्वीकार करने के बाद किसी भी प्रकार के पाप कर्म का सेवन नहीं करना चाहिए / सुखार्थी, लोलुप साधक