________________ कभी न कभी व्रतों की विराधना कर देता है एवं वह पश्चाताप और भव भ्रमण करता है। (2) मेरा, मेरा-पन रूप कहीं भी किसी में भी जो ममत्व. भाव है, उसका त्याग करना संयम साधना में नीतान्त आवश्यक हैं। (3) वीर साधक कभी भी रति-प्ररति अर्थात् हर्ष-शोक नहीं करें। (4) इन्द्रिय विषयों के प्रति और जीवन के प्रति सदा निर्वेद भाव रखे। (5) जो अन्य को प्रात्मवत् देखता है वही महात्मा, परमात्मा, बन सकता है। (6) गरीब या अमीर को समान भाव से अर्थात् रूचिपूर्वक धर्म कहे। (7) श्रोता के कषाय वृद्धि और कर्म बन्ध नहीं होकर गुण वृद्धि हो ऐसी विचक्षणता से धर्मोपदेश करना चाहिए। (8) साधक सदा लोकसंज्ञा का और हिंसादि पापों का सर्वथा त्याग करें। तीसरे अध्ययन का सारांश:प्रथम उद्देशकः- (1) मुनि सदा भावों से जागृत-सावधान रहता है। (2) शब्दादि इन्द्रिय विषयों का परित्याग करने वाला ही वास्तव में प्रात्मार्थी, ज्ञानी, शास्त्रज्ञ, धर्मी, ब्रह्मचारी, मुनि और धर्मज्ञ हैं / परीषह उपसर्ग सहने वाला और हर्ष-शोक नहीं करने वाला ही निर्ग्रन्थ हैं। (3) बुद्धिमान यह समझ ले कि सारे दुःख प्रारम्भ (पाप प्रवति) से ही उत्पन्न होते हैं। माई (चार कषाय वाला) और . प्रमादी (पापसेवी) ही दुर्गति में जाते हैं /