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________________ आदि कई परिस्थितियां आती है, उसमें सम्भल कर रहना चाहिए। सदा सांसारिक जीवों की दुर्दशा के चिन्तन को प्रात्म भाव में उपस्थित रखना चाहिए। (2) सांसारिक जीव अनेक हेतुओं से एवं लोगों को अपना बनाने के लिए पाप करते रहते हैं किन्तु अन्त में वे असहाय होकर कर्म वश से दुर्गति प्राप्त कर उभय लोक बिगाड़ते हैं। तृतीय उद्देशकः (1) सभी जीवात्मा समान है अतः कभी भी गोत्र आदि का गर्व नहीं करना तथा हर्ष एवं क्रोध भी नहीं करना चाहिए। (3) अन्धे, बहरे आदि जीवों के प्रति हीन भाव न करके प्रात्मसम व्यवहार करना। (3) कई प्राणी भोग विलास ऐश्वर्य को ही सब कुछ मानते हैं / किन्तु इसके विपरीत कई आत्म हितैशी अरणगार जन्म मरण को और जीवन की क्षण भंगुरता को जानते हैं एवं प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं ऐसा भी वे समझते हैं / (4) अपने सुख के लिए प्राणियों का विनाश करना या धन का संग्रह करना प्रात्मा के लिए अहितकारी है। .. (5) प्राप्त धन के विनाश की भी अनेक [6] अवस्थाएं होती हैं। - (6) धन संग्रही जीव संसार सागर को पार नहीं कर सकता। यह जानकर पण्डित पुरूष संयम प्राप्त करे एवं उसकी भगवदाज्ञानुसार पाराधना करें। चतुर्थ उद्देशकः.. (1) रोगोत्पत्ति हो जाने पर धन एवं परिवार के होते हुए भी स्वयं का दुःख स्वयं को ही भुगतना पड़ता है /
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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