________________ 436 सुभाषितसूक्तरत्नमाला गुरुभक्तेः श्रुतज्ञानं, भवेत् कल्पतरूपमम् / लोकद्वितयभाविन्य-स्ततः स्युः सर्वसम्पदः // 7 // जननी जनकः स्वामी, गुरुश्चापि विशेषतः॥ श्लोकार्थः अप्रतिकार्याश्चत्वारो, सर्वसेवा गुणैरपि विद्यागुरुना अविनयथी सारीरीते प्राप्तकरेल विद्या अल्प फल दायक जो परिभवइ अविणया, धम्मगुरुं जत्थ सिक्खए विजं / सा सुगहियावि विज्जा, दुक्खेण तस्स देइ फलं // 8 // ___ चारे दिशामा गुरुनो साडात्रण हाथ अवग्रह राखबो आयप्पमाणमेत्तो, चउदिसिं होई उग्गहो गुरुणो / / श्लोकाः कणयकमले हिं गुरुणो चलणजुयलं अच्चिऊण पणमेइ / अतस्तु नियमादेव, कल्याणं निखिलं सताम् / गुरुभक्तिसुखोपेतं, लोकद्वयहितावहम् // 9 // . सद्गुरुचें लक्षण भिक्षामात्रोपजीवी समतृणकनको त्यक्तसावधयोगः, पत्रिंशत्सङ्ख्यमुख्यप्रवरगुणगणालङ्कृतः सच्चरित्रः / ज्ञानाद्याचारसारः स्वपरसमयवित्सत्यधर्मोपदेष्टा, सर्वज्ञोऽज्ञानवह्निर्मगति विजयते सद्गुरुः सत्यधामः // 10 // श्रीजिनेश्वरदेव अने केवलीना विरहमां श्रीआचार्यज शासनप्रकाशक छे अत्थमिए जिणसुरे, केवलिचन्देवि जे पईवव्व / पयडंति इह पयत्थे, ते आयरिए नमंसामि // 11 //