________________ 406 सुभाषितसूक्तरत्नमाला तम्हा सया विसुद्धं, परिणामं इच्छया सुविहियेणं / हिंसाययणा सव्वे, वज्जेयव्या पयत्तेण // 5 // ' अहिंसा प्रथमो धर्मः, सर्वशास्त्रेषु विश्रुतः / यत्र जीवदया नास्ति, तत्सवै परिवर्जयेत् // 6 // क्षमातुल्यं तयो नास्ति, न संतोपात्परं मुखम् / न मैत्रीसदृशं दानं, न धर्मोऽस्ति दयासम: / / 7 // दीयते मार्यमाणल्य, द्रव्यकोटि वा जीवितम् / द्रव्यकोटि परित्यज्य, सों जीवितुमिच्छति // 8 // जननी सुखकोटीनां, दलनी दुष्टकर्मणाम् / मथनी सर्वपापानां, शोधनी शिवकर्मणाम् // 9 // जिनशासनसर्वस्वं, वश्या विद्यागमस्य या / जीयाज्जीवदया जीव-जीवातुः सर्वदेहिनाम् // 10 // अहिंसा धर्मकल्पद्रोः, सुमेरुगिरिकन्दरा / अहिंसा जिनतत्त्वेषु, सारं परमतत्त्ववत् // 11 // न ये प्रागुपकारिभ्यः, प्रीत्या प्रत्युपकारकाः। पुरुषाः परुषास्तेभ्यो, धन्यान्मन्यामहे पशून् // 12 // धर्मद्रोश्च कृपामूलं, शास्त्राणां जीवितं कृपा / कृपा मुक्त्यङ्गनादूती, धन्यैरासेव्यते ह्यसौ // 13 // मांस खावा करतां झेर खावू सारं मयोचेऽम्ब / तपो-ज्ञान-दान-ध्यानविघातिनः / वरं मांसाद्विषं यस्मा-देकदा जायते मृतिः // 14 //