________________ 308 सुभाषितसूक्तरत्नमाला कदापि न प्रतार्यः स्यात्, स्वपतिः सुकुलस्त्रिया / यथादिष्टेन सञ्चर्य, पेयश्च चरणोदकम् // 19 // . खामिना यत्समादिष्टं, कर्तव्यं जायया सदा / मिष्टभाषणपूर्व तं, भोजयित्वा च भोजनम् // 20 // प्राणेशे जिम्हवृत्तिः स्यात् , पापकर्मप्रवर्धनी। सरलाभिरतो भाव्यं, प्राणेशगुणवृद्धये // 21 // अञ्चलबन्धनं येन, तेनैव जिम्हता कथम् / यस्मै समर्पितं सर्व, तस्माद्भेदो न श्रेयसे // 22 // पक्षिण्यपि निजं नाथं, नित्यं स्यादनुगामिनी / मानुषी ज्ञानयुक्तापि, कथं स्वामिपराङ्मुखा // 23 // पद्मिनी न निशानाथं, दिनेशं न कुमुद्वती। आकाङ्क्षति लताप्येनं, किं पुन: कुलयोषितः॥२४॥ नीरङ्गीच्छन्नवदना, नित्यं नीचैर्विलोचना / वत्से ! कैरविणीव त्व-मसूर्यपश्यतां श्रये // 25 // गता पतिगृहं वत्से ! गुरूणां विनता भवेः। कुर्यास्त्वं भोजनं भुक्ते, निद्रां सुप्ते च भर्तरि // 26 // नीरङ्गीच्छन्नवदना, नित्यं नीचेविलोचना / पिकीव मधुरालापा, भवेस्त्वं श्वसुरालये // 27 // कुलस्त्रीणां पतिः पूज्यः, पतिर्देवः पतिर्गुरुः / तस्यादेशेन कर्तव्यं, सर्वकार्य सदा शुभम् // 28 //