________________ 182 सुभाषितसूक्तरत्नमाला रोगसोगविओगाइ, रे ! जीव ! मणुयत्तणे। अणुभूयं महादुक्खं, पमाएणं अणंतसो // 32 // कसाया विसया ईसा-भयाइणि सुरत्तणे। पत्ते पत्ताइं दुक्खाई, पमाएणं अणंतसो // 33 // जं संसारे महादुक्खं, जं मुक्खे सुक्खमक्खयं / पाविति पाणिणो तत्थ, पमाया अपमायओ // 34 // पत्ते वि सुद्धसम्मत्ते, सत्ता सुत्तनिउत्तया / उवउत्ता जं न मग्गंमि, हा! पमाओ दुरंतो / / 35 // बाढं पढंति पाहंदि, नाणासत्थविसारया। भुल्लंति ते पुणो मग्गा, हा! पमाओ दुरंतओ // 36 // अन्नेसिं दिति संबोहं, निरसंदेहं दयालुया / सयं मोहहया ते वि, हा! पमाओं दुरंतो // 37 // पंचसयाण मज्झमि, खंदगायरिओ तदा। कहं विराहओ जाओ, हा! पमाओ दुरंतओ / / 38 // तयवत्थं तयाहूओ, खुडदेवेण बोहिओ। अज्जसाढगणी कहें, हा ! पमाओ दुरंतओ // 39 // सूरी य महुरामंगू, सुत्तअत्यधरो थिरं। पुरनिद्धमणे जक्खो, हा ! पमाओ दुरंतओ // 40 // जं हरिसविसाएहिं, चित्तं चिन्तिज्जए फुड (कूडं) महामुणीण संसारे, हा ! पमाओ दुरंतो // 41 //