________________ 180 सुभाषितसूक्तरत्नमाला करोति यत्कर्म मदेन देही, हसन् त्वधर्म सहसा विहाय / रुदंश्चिरं रौरवरन्ध्रमध्ये, भुङ्कते फलं तस्य किमप्यवाच्यम् // 13 // आलस्समोहऽवन्ना, थंभा कोहा पमायकिविणत्ता। भयसोगा अन्नाणा, वक्खेवकुऊहला रमणा // 14 // यथा प्रमादादनुपात्तविद्यः, स मन्दधीवुःखमिहैव लेभे। तथाङ्गिनोऽन्येऽपि लभन्ति तत्त्व-ज्ञानं विना दुःखमनेकभेदम्॥ सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः।। अस्सिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचना // 16 // प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः। निर्वाणं प्राप्यते येन, सरागेणाऽपि चेतसा // 17 // जइ चउद्दसपुव्वधरो, वसइ निगोए अणंतयं कालं / निदाइपमायाओ, कहं होहिसि ता तुमं जीव ! // 18 // " श्रीजिनप्रभसरिकृतं-आत्मसंबोधकुलकम्-" मोक्खसुक्खे सया मोह, अमोहं जाण सासणे। तेसि कयपणामो है, सम्बोहं अप्पणो करे // 19 // दसहिं चुल्लगाईहिं, दिद्वन्तेहिं कयाइ उ। संसरन्ता भवे सत्ता, पाविति मणुयत्तणं // 20 // नरत्ते आरियं खेत्तं, खेत्ते वि विमलं कुलं / कुले वि उत्तमा जाई, जाईए ख्वसंपया // 21 //