________________ 151. कर्मबन्धविपाकयोः सूक्तानि तिव्वतरेण (हि) यओसे, सयगुणिओ सयसहस्सकोडिगुणो / कोडाकोडिगुणो वा, हुज्ज विवागो बहुतरो वा // 3 // सब्बो पुव्वलयागं कन्माणं पावए फलविवागं / अवराहेसु गुणेमु य, निमित्तमेत्तं परो होइ // 4 // ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैत्र, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः।। उपघातेश्च विघ्नेश्व, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते // 5 // जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण। सो तम्मि तम्मि समय, मुहासुहं बंधए कम्मं // 6 // एअं ससल्लमाणं. मरिऊण महाभवे दुरन्तम्नि / सुचिरं भमन्त्रि जीवा, दीहे संसारकंतारे // 7 // कर्म दुःश्वमयं दुःखा-नुभवं दुःखहेतु च / कर्मायत्तः (सं) मुखं जीवो, न लेशमपि सेवते // 8 // नरकं येन भोक्तव्यं, चिरं तत्पापपूर्तये / नियुङ्क्ते विधी राज्ये, बहारम्भपरिग्रहे // 9 // मिच्छदिटिमहारंभ-परिग्गही तिव्यकोहनिस्सीलो। नरयाउयं निवन्धइ, पावरुई रुदपरिणामो // 10 // असन्निसरिसिवपक्खी-सीहउरगित्थी जंति जा छहिं / कमसो उक्कोसेणं, सत्तमपुढवीं मणुअमच्छा // 11 // संखपणिदियतिरिया, मरिउं चऊसु वि गईसु गच्छंति / ..... थावरविगला नियमा, संखाउयतिरिनरे जंति // 12 //