________________ श्रीवीतरागशासनाराधनासूक्तानि समस्तवास्तु-धान्यादौ, द्विपदे च चतुष्पदे। यदकार्षमहं मूर्ची, तन्निन्दामि मुहुर्मुहुः // 25 // समृद्धिगृद्धिना पूर्व-माहारश्च चतुर्विधः / अभुज्यत मया नक्तं, विविक्तस्तं त्यजाम्यहम् // 26 // महाव्रतानि चत्वारि, सूत्रतोऽपर्थतोऽपि च / परावर्त्य तदेकाग्रः, पुनरुज्ज्वलतां नये // 27 // दुर्वाक्यादपकाराद्वा, यद्वा द्रव्यापहारतः / यो मया लम्भितः पीडां, स मे क्षाम्यतु संप्रति // 28 // देवत्वे ये मया देवा, नारकत्वे च नारकाः। तिर्यक्त्वेऽपि च तिर्यञ्चो, मानुषत्वे च मानुषाः // 29 // स्थापयाश्चक्रिरे दुःखे, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि / उपेतः समतां सर्वे, तेषामहमपि क्षमे // 30 // युग्मम् // लक्ष्मी रूपं प्रियैर्योगो, जीवितं यौवनं बलम् / बातोद्धृताब्धिकल्लोल-चञ्चलं सकलं खलु // 31 // रोग-मृत्यु-जरा-जन्म-दुःस्थानामिह देहिनाम् / धर्ममेकं विना जैनं, न कोऽपि शरणं भवेत् // 32 // जन्तवः स्वजना: सर्वे, जाता परजनाश्च ये। विवेकी तेषु कुर्वीत, को ममत्वं मनागपि ? // 33 // एकस्यैव भवे जन्म, स्यादेकस्यैव पञ्चता / एकस्यैवाङ्गभाजः स्यु-दुःखानि च सुखानि च // 34 //