________________ 8 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य पुलकेशि प्रथम का मूल नाम 'येरेय' पुलगेरि की एक शिला पर दर्ज है, जो कि ताम्रपत्र की नकल ही है। पुलकेशि प्रथम के शासन काल में ही शंखजिनालय के निर्माण का काम किया गया था। अपने राजवंश के राजनीतिक विकास में रणराग की क्या भूमिका थी इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी अपने वंश का वह प्रथम राजा था जिसे रणराग की उपाधि प्राप्त हुई थी और उसके बाद भी उसके परिवार के अन्य राजाओं को भी यह आदरसूचक नाम मिलता गया। निश्चित ही इस राजा ने कई युद्धो में विजय प्राप्त की थी। यह जरूरी तो नहीं कि कोई राजा अगर यज्ञ करता है तो वह राजा ब्राह्मण ही हो। प्रत्येक शासक या राजा की महत्वाकाँक्षा होती है कि वह हर दिशा में अपना नाम बनाए, संपन्न हो, इसलिए वे हमारी परंपरा तथा रीति-रिवाजों से जुड़ गए। कलिंग के प्रसिद्ध राजा खारवेल ने, जो कि एक कट्टर जैन था, छठी सदी के मध्य, अपने शासनकाल (ई.पू. दूसरी सदी) में राजसूय यज्ञ किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन राजाओं ने इन परंपराओं को तोडा नहीं, वे क्षत्रिय वंश के होने पर भी यज्ञादि के खिलाफ नहीं थे। खारवेल शासकों का सुक्तवाक्य था, 'सव्व . पसन्दय पूजको' तथा 'सव्वदेवायन्ता संस्कार कारक' अर्थात वे सबकी पूजा में विश्वास करते थे और सबका आदर करते थे। इस तरह उनका अनेकान्तवाद शायद ही कभी तत्कालीन श्रद्धा और विचारधारा - तथा मान्यता के विरुद्ध संघर्ष का कारण बना हो। इस प्रकार प्रजा तथा राज्य के हित के लिए किया जाने वाला दानधर्म राजधर्म का ही अभिन्न अंग था। कोई भी महत्वाकांक्षी राजा विजयप्राप्ति तथा विजयोत्सव के लिए किसी न किसी यज्ञ का आयोजन किया ही करता था, पुलकेशि प्रथम ने भी अपने पूर्वजों के पदचिह्नों का अनसरण किया। ‘ऐहोळे' जयसिंह तथा उसके अधिकारियों का तबतक मूलस्थान था जब तक पुलकेशि ने वातापी को केंद्र स्थान बनाया नहीं था, जिसे वनवासी के कदंबों ने छीन लिया था। पर जब तक चालुक्य उस पर अपना अधिकार कर लेते सातवाहनों ने उसे अपने अधीन कर लिया था और वहाँ एक ईटों का मंदिर भी बनवा दिया था और उसे आर्यपुर यह नाम भी दिया था, जो कि ऐहोळे का संस्कृतमूल था, जिसका बाद में 'आर्यपोळाल' यह संक्षिप्त रूप हो गया, जिसका अर्थ था, 'प्रमुख शहर। संभवतः 'अहिवोळल' 'अहिवळ्ळि' 'ऐवळ्ळि' तथा 'ऐहोळे' इन शब्दभिन्नता के बारे में सोचने की आवश्यकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org