________________ 170 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य जाता है इसलिए नहीं कि वे दक्षिण के थे बल्कि इसलिए भी कि ये छठी तथा आठवीं सदी के मध्य के हैं। यह वही काल है जब चालुक्यों ने दक्षिण प्रदेश पर अपना शासन किया था। विद्वत्ता तथा व्यवस्थित अभिव्यक्ति से परिपूर्ण, प्राचीन विद्यमान तथा ज्ञात कृति षट्खंडागम ने अपने समग्र साहित्य में ऊपर उल्लेखित सभी लेखकों के भाष्यों को सम्मिलित कर लिया है। के.वी. सौंदर राजन ने इस काल के जैन, विशेषकर जैन साहित्य पर जोर देते हुए कहा है कि, " कई सारे उपलब्ध साक्ष्य यही दर्शाते हैं कि चालुक्य के शासन काल में जैनधर्म के विकास अत्यधिक हुआ। कदंबों ने जैनधर्म के कई संप्रदायों को संरक्षण दिया। जैसे, श्वेतप * महाश्रमणम संघ (श्वेतांबर), निग्रंथ संघ, यापानिया संघ, मूल संघ, (दिगंबर) तथा कूरचक संघ। फिर जैनधर्म चालुक्यों के नए नगरों में चल पड़ा, इसके साक्ष्य हैं, ऐहोळे की जैन गुफा ( मेणबसदी) तथा बादामी गुफा नंबर चार, तथा ऐहोळे का मेगुडी मंदिर (ए.डी 634) / इस काल के महान जैन मताधिकारियों ने जो महान कार्य किया है वह हम तक पहुँच पाया है। उनमें से दिगंबर शाखा के पूज्यपाद देवनंदी (सी. ए.डी 625-7675) की कृति 'सर्वार्थसिद्धी' वाचक उमास्वाति (ई. चौथी-पाँचवीं सदी ए.डी.) लिखित 'तत्वार्थ-सूत्र' का भाष्य है। वाचक उमास्वाति श्वेतांबर शाखा के एक संप्रदाय उच्चैरनागर शाखा के थे, जिनका संस्कृत व्याकरण जिसे जैनेंद्र कहा जाता था, उनकी भौतिक रहस्यवाद की काव्यात्मक कृति समाधितंत्र और कुछ अन्य गहन दार्शनिक दृष्टिकोण से लिखीं गयीं कृतियाँ जैसे इष्टोपदेश आदि आते हैं। एक अन्य कृति, रविसेन ने विमलसूरी का प्राकृत में लिखा पउमचरिय संस्कृत में पद्मचरित्र के नाम से अनुदित किया" / ( ए. डी 677-678) / यापनीया संघ के संत जथा सिंहनंदी ने सातवीं सदी के पूर्वार्ध में प्रसिद्ध वरांगचरित लिखा। तिलोयपण्णत्ति (सं. त्रिलोकप्रजनपति) की रचना भी इसी काल में हुई संभवतः ए. डी. 542 के तुरंत बादा यापनीया व केर का मूलाचार का श्रेय भी इस युग को जा सकता है। कर्नाटक में इस काल के दौरान दिगंबर जैन संप्रदाय अन्य जैन संप्रदायों से उच्च स्तर पर था। प्रचीन किंतु ज्ञात कवयित्रि विज्जिक्का इसी काल की थी। राजकुमार चंद्रादित्य की महारानी विज्जिक्का 'काव्यादर्श' के रचियता संस्कृत आचार्य दंण्डी की समकालीन थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org