________________ 162 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य प्रारंभ से ही जैन विद्वानों ने बिना किसी विरोधी भूमिका के निरंतर वैयक्तिक कर्तव्यों को निभाते हुए, अपने तात्विक तथा दार्शनिक अन्तर्धारा से विश्व के प्रति अपनी परिकल्पना तथा व्यक्ति की परिपूर्णता को निरंतर समझाया। कला, शिल्पकला या साहित्य के क्षेत्र में उनका जो भी विवरण था, ईसा पूर्व जो भी उपलब्ध था उसको नष्ट कर दिया गया। तथापि उनका विवरण, सुव्यवस्थित रूप से ई. की प्रारंभिक सदियों से शुरु होता है। अतः हम देखते हैं कि साहित्यिक वातावरण की प्राचीर एक ऐसी ओजस्वी तथा गतिमान शक्ति थी कि जिसने पाँचवीं सदी से शुरु होकर हजारों वर्षों तक अपनी उर्जा को बनाए रखा। बढती हुई ओजस्विता में, राजसी, शाही तथा वाणिज्यिक संरक्षण में बहमुखी.जैन विद्वत्ता ने अपने पंख कन्नड साहित्य की कई विधाओं में फैला दिए और परवर्ती चालुक्य तथा राष्ट्रकूटों के काल में अपनी सर्वोच्चता को बनाए रखा। फिर एक बार सहित्य को फूलने फलने के लिए एक उपजाउ जमीन तैयार करने का श्रेय चालुक्यों को ही जाता है। स्तुतिपद्य काव्य के संदर्भ में, पुरालेखों के प्रारंभ में रविकीर्ति के संस्कृत काव्य का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्व है। किसी पुरालेख का प्रारंभ किसी पावित्र्यपूर्ण स्तुति से होता था वह चाहे संस्कृत में हो या प्राकृत में या फिर किसी प्रादेशिक भाषा में वह जैन लेखक का ही था। फिर बाद में बुद्धों ने भी इस प्रवृत्ति को अपनाया और अपने अपने मतानुसार स्तुतिपद्य काव्य लिखने लगे। महाराष्ट्र के पले (पुने जिला) के गुफा का पुरालेख, लगभग ईसा की प्रथम सदी, संस्कृत आह्वान से प्रारंभ होता है, नमो अहँतानामा (नागराज्जय हंप, जिनेन्द्र स्तवन 2003) दक्षिण में, ईसा पूर्व तीसरी सदी तथा ईसा की तीसरी सदी में आंध्र तथा कर्नाटक प्रदेश में सातवाहनों ने, तथा ई. स. 225 में इक्षावकुस ने राजगद्दी पर आने के बाद, शासकीय रिकार्डों के लिए प्राकृत भाषा लागू की। लेकिन परवर्तियों ने संस्कृत अपनायी। प्राकृत से संस्कृत भाषा के इस परिवर्तन ने गति पकड़ ली और पल्लवों तथा कदंबों ने संस्कृत को बढावा दिया। दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक में, प्रारंभ में गंगों ने शासकीय रिकॉर्ड के लिए संस्कृत को अपनाया फिर बाद में छठी सदी में राजा अवनीत के काल से कन्नड भाषा अपनायी। जैसे ही आदत बढने लगती है वैसे ही उसका महत्व भी बढता जाता है, वातापियों के शासनकाल में कन्नड ने गति पकडी, और हम देखते हैं कि 100 में से 35 पुरालेख कन्नड में मिलते हैं। कन्नड को अपनाने की यह प्रवृत्ति, वातापी के शासनकाल में और भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org