________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 91 असाधारण शिल्प की ओर देखकर हम यह समझने लगते है कि उस घटना में प्रचुर मात्रा में उनकी नितांत हिस्सेदारी रही होगी, जो इतिहास और पुराण में अपने पैर फैलाए बैठ गई है और एक अखंड परंपरा से जोडती है जो ई.पू. 600 तक फैली हुई है। इस वर्णनात्मक शिल्प ने, शिल्पकारों की रचनात्मक दूरदृष्टि को प्रोत्साहित किया जिससे वे अपनी सबसे अच्छी कला का प्रदर्शन कर सके। नागछत्र यह एक ऐसा संकेत चिह्न है जो अर्हत पार्श्व तथा उसके पूर्वजों को नागा जन-जाति से जोड़ता है। पुरातत्वीय साक्ष्य भी यह दर्शाते है कि लगभग दो ढाई हज़ार वर्षों तक बुद्ध तथा अन्य पंथों के समांतर जैन परंपरा में भी नागपूजा अस्तित्व में थी। ____ नागछत्र का प्रतीक सामान्य सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में विकसित हुआ। उपसर्ग का संदर्भ, कमठ द्वारा पार्श्व पर की गई प्राकृतिक आपदा तथा धरणेंद्र का उसके साथ संबंध आदि एक धातु पर बनी पार्श्व की प्रतिमा पर मिलते हैं जिसे प्रिन्स वेल्स के म्युजियम, (मुंबई) में पाया गया जो ई.पू. दूसरी-पहली सदी में (सिरका) को बनवाने के लिए दी थी और मथुरा में स्थित पार्श्व की प्रतिमा पहली, दूसरी तथा तीसरी सदी में बनवायी गयी थी। किंतु कर्नाटक के संदर्भ में प्राचीन गुफाएँ बादामी तथा ऐहोळे की ही हैं। _ पार्श्व की उभरी हुई नक्काशी और उपसर्ग का भाग ऐहोळे तथा बादामी में भी मिलते हैं। इसके साथ पार्श्व तथा सुपार्श्व के शिल्पों में पायी जानेवाली समानता तथा उसकी ऐतिहासिक तथा पौराणिक संक्षिप्त प्रस्तावना देखना होगा। ___ पार्श्वनाथ तथा आठवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा सर्पछत्र के कारण अक्सर समान ही लगती है। पार्श्व तथा सुपार्श्व की प्रतिमाओं के मध्य की भिन्नता को समझने के लिए दो बातों का परीक्षण आवश्यक है। 1. जिन की प्रतिमा, जिस पर सर्पछत्र है और उसकी कुंडली उसके पीठ से होकर जिन के आसन के नीचे तक जाती है---वह प्रतिमा पार्श्व की है। 2. लांछन अथवा सुपार्श्वनाथ के ध्वज पर स्वस्तिक का चिह्न है जो कि सौभाग्य का बोधक है। जैन परंपरा में स्वस्तिक जीवनचक्र का द्योतक है। चालुक्यों के शासनकाल में पार्श्व की प्रतिमाओं तथा शिल्पों ने लोकप्रियता अर्जित की थी। प्रारंभिक काल के कुछ मंदिर पार्श्व को समर्पित थे। ऐहोळे तथा बादामी की गुफाएं, से व्वगुडि हल्लुरु तथा पौम्बुच बसती आदि ऐसे स्थान हैं जहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org