SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य (पुनाट) के अक्ष में हेग्गडदेवनकोटे तालुका (मैसूर जिला) के आसपास का प्रदेश तथा विशेषकर कावेरी तथा कापेनी नदी के मध्य के प्रदेश में जैनधर्म पनपा। टालमी (PTOLEMY) (लगभग दूसरी सदी) ने पुन्नाट स्थान का पुन्नट के नाम से उल्लेख किया है। तमिल किवता कलवलि (ईसा की छठी सदी) में यह कहा गया है कि चेंगन्नन, चोलों के प्रमुख पुनलनाडु उपनाम पुन्नाड का स्वामी था। जैन संघ जो इसी पुन्नाडु में उदित हुआ था, का नाम इसी देश के नाम पुन्नाट अथवा पुन्नाड संघ रखा गया। किंतु कित्तुरु (कीर्तिपुर) पुन्नाडु की राजधानी थी अतः पुन्नाडु संघ को एक और नाम मिला कित्तुरु संघ, जो कि पुन्नाडु के राजधानी के नाम पर रखा गया था। कीर्तिसेनमुनि (740) पुन्नाडु संघ के अग्रदूत अमितसेन आचार्य का शिष्य था। सातवीं सदी पूर्व के श्रवणबेलगोळ के शिलालेख में कीर्ति संघ के साधुओं का उल्लेख हुआ है। ख्यातनाम महाकवि जिनसेन प्रथम तथा 'हरिवंश' (783) के लेखक कीर्तिमुनिसेन के शिष्य तथा अमितसेन आचार्य के परमशिष्य थे। ये साधु तथा सन्यासी दक्षिण के कित्तूर से उत्तर के काठियवाड के वर्धमान (वाढ़वान) की ओर स्थानांतरित हुए, जहाँ जिनसेन ने अपना महाकाव्य रचा।। जैन तथा बौद्द संप्रदाय दोनों समान रूप से वातापी के गुफा मंदिरों में अपनी अपनी प्रतिष्ठा पा रहे थे। जो कि मोहित करनेवाला सिद्धान्त था। जैन तथा बौद्ध समकालीन थे किंतु पहले का उद्भव बहुत पहले हुआ था जबकि दोनों का 1000 वर्षों तक सहअस्तित्व था। विशेषरूप से कर्नाटक में बौद्ध धर्म बादामी के चालुक्यों के काल में समान स्थान पा नहीं सका। दोनों धर्मों में कई समानताएँ होने पर भी बौद्ध धर्म कर्नाटक तथा दक्षिण से नष्टप्राय हो गया। अतः सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभावी स्थान बनाए रखने बौद्ध धर्म के लिए वातापी चालुक्यों का युग ही अंतिम था और फिर उसके बाद जो था वह बिलकुल उलटा था। राष्ट्रकूटों के पतन के साथ बौद्ध धर्म भी इस प्रदेश पर अपनी पकड़ नहीं रख पाया और उसी समय जैनधर्म को महत्व मिला और संभवतः बौद्ध के अनुयायियों पर जैनों ने जीत हासिल की। स्मरण किया जा सकता है कि आजीवक पहले जैनधर्म में विलय हो गए थे। ___अतः इस अवधि को स्थायी तथा सुरक्षित स्वर्ग कहा जाएगा जहाँ श्रमण संस्कृति का प्रसार हुआ। उसके प्रभाव की तीव्रता पारदर्शी थी। साम्राज्य को दृढिभूत बनाने में जैनों ने सीधी तथा निर्णायक भूमिका निभायी थी। और एक बार फिर निर्ग्रथों की गतिविधियों में ज्वार आया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004380
Book TitleBahubali tatha Badami Chalukya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagarajaiah Hampa, Pratibha Mudaliyar
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan tatha Anusandhan Sanstha
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy