________________ समाधिमरण से सम्बन्धित सभी विषयों को एक स्थान पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ अति महत्त्वपूर्ण है। इसमें 664 गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ संक्षिप्त होते हुए भी भगवती आराधना के समान ही अपने विषय को समग्र रूप से प्रस्तुत करता है। तन्दुल वैचारिक नामक प्रकीर्णक के अन्त में भी समाधिमरण का विस्तृत विवरण पाया जाता है। आचारांग के अनुसार समत्व या वीतरागता की साधना ही धर्म का मूलभूत प्रयोजन है। वीतरागता की उपलब्धि में ममत्व बाधक तत्त्व है और इस ममत्व का घनीभूत केन्द्र व्यक्ति का अपना शरीर होता है। समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना का ही प्रयास है। जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी मृत्यु का स्वागत है। वह देह के पोषण के प्रयत्नों का त्याग करके देहातीत होकर जीने की एक कला है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन में समाधिमरण का उल्लेख.करते हुए शरीर, आहार, वस्त्र आदि के प्रति निर्ममत्व और उसके विसर्जन की चर्चा है। इसमें समाधिमरण स्वीकार करने की तीन स्थितियों का उल्लेख है-. 1. जब शरीर इतना अशक्त व ग्लान हो कि व्यक्ति संयम के नियमों का पालन . करने में असमर्थ हो और मुनि के आचार (नियमों) को भंग करके ही जीवन बचाना सम्भव हो, उस स्थिति में आचार नियमों के उल्लंघन की अपेक्षा देह का विसर्जन ही नैतिक है। निर्बल या मरणान्तिक रोग से आक्रान्त हो जाने पर, नियम या मर्यादा पूर्वक आहार आदि प्राप्त करने में असमर्थ रहने पर आहार का परित्याग कर शरीर के पोषण के प्रयत्नों के बन्द कर देना देह के प्रति निर्ममत्व की साधना है। 2. वृद्धावस्था अथवा असाध्य रोग के कारण जब यह लगने लगे कि जीवन पूर्णतः दूसरों पर निर्भर हो गया है और अपनी साधना करने में असमर्थ है तो उस स्थिति में आहार आदि का त्याग करके देह का विसर्जन कर देना चाहिए। 3. जब यह लगने लगे कि सदाचार या ब्रह्मचर्य का खण्डन किए बिना यह जीवन सम्भव नहीं है अर्थात् चरित्रनाश या जीवित रहने में एक ही विकल्प सम्भव है, तब तत्काल ही श्वासनिरोध आदि करके देह विसर्जित कर देनी चाहिए। आचारांगकार न तो जीवन को अस्वीकार करता है और न ही जीवन से भागने की बात कहता है। वह तो यह प्रतिपादित करता है कि जब मृत्यु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही हो और आचार-नियम-प्रतिज्ञा भंग किए बिना जीवन सम्भव नहीं हो तो उस स्थिति में मृत्यु का वरण ही उचित है। यह मरण विमोहआयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, निःश्रेयस्कर और भविष्य के लिए कल्याणकारी होता है। आचारांग सूत्र में समाधिमरण के तीन रूपों का उल्लेख है- भक्तप्रत्याख्यान, प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 95