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________________ है, जिसे अभिव्यक्त करने के लिए आचार्यों ने प्रमुखता दी है। तत्त्वार्थश्रद्धान विवेक का ही रूपान्तर है। स्वयं की स्थिति को जानकर जीव के कर्मों से छूटने के उपक्रम को विवेक रूप आचरण को ही सम्यकचारित्र संज्ञा से अभिव्यक्त किया गया है। व्रतादिकों को धारण करना विवेकाश्रित ही होता है। सामान्य जीवन भी विवेक के आधीन है किन्तु व्रतादिकों के माध्यम से जीवन को सुव्यवस्थित बनाने की प्रेरणा आचार्यों ने दी है। इसीलिये जहाँ श्रावकों को सच्चे देव-शास्त्र-गुरु द्वारा बतलाये मार्ग पर चलने की बात कही गई है, वहीं व्रतों के माध्यम से शरीर के प्रति चिरकालीन ममत्व को तोड़ने के लिए सल्लेखना-विधि का उल्लेख किया गया है। सल्लेखना का अर्थ जीवन को सम्यक् प्रकार से लेखित करना है क्योंकि जीवन भावों पर केन्द्रित होता है। इसलिये जैन-परम्परा में भावशुद्धि पर विशेष जोर दिया जाता है। मान्यता भी है भावना भवनाशिनी, भावना भववर्द्धिनी। शुद्ध भाव की प्राप्ति का आधार स्तम्भ भेद-विज्ञान है। सांसारिक अवस्था में भेदविज्ञान - वीतराग विज्ञान, स्व-पर विवेक के माध्यम से शुद्ध भाव की ही प्राप्ति हेतु सम्यक आराधना का अवलम्बन करने की बात कही गई है। सम्पूर्ण जैनदर्शन इसी के इर्द-गिर्द घूमता है। इसकी विचारणा, तर्कणा और निष्पत्तियाँ सभी जीवन के उच्च भावों को प्राप्त करने के लिए है। चाहे वह सम्यग्दर्शन हो, सम्यग्ज्ञान हो अथवा सम्यकचारित्र। यह बात निर्विवाद है कि दर्शन और ज्ञान की परम परिणति चारित्र से ही होती है। संयम, व्रत, आचरण का अभिधेय जीवन को उच्च भावों तक ले जाना है। स्वभावतः आत्मा न तो जन्म लेता है, न उसकी मृत्यु होती है, न वह बँधता है, न व छूटता है। पर्याय, परिवार व परिग्रह संसारी जीव की नियति है। पर्यायातीत या परिग्रहातीत होने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है भेदविज्ञान, सम्यकदर्शन की प्राप्ति / आचार्यों ने सम्यकदर्शन की महत्ता समझाते हुए लिखा है कि इसके बिना वृद्ध से वृद्ध व्यक्ति भी बाल है। सम्यकदर्शन के बिना व्रत को भी आचार्य व्रत न मानकर कुल परम्परा मानते हैं। आचार्य पाँचवें गुणस्थान से पहले जीव को श्रावक मानने को तैयार नहीं है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र आदि आचार्य और श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र आदि आचार्य पाँचवें गुणस्थानवी जीव को ही श्रावक मानते हैं। पाँचवां गुणस्थान है- देशविरत सम्यग्दर्शन। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आचार्य सम्यग्दर्शन से पहले देश जीव को व्रत, संयम आदि धारण करने के योग्य नहीं मानते। सल्लेखना व्रत, संयमपूर्ण आचरण का अन्तिम पड़ाव है। सम्पूर्ण जीवन में 'संयम और व्रतों की आराधना इसी सल्लेखना की प्राप्ति के लिए की जाती है। - जहाँ पाक्षिक, नैष्ठिक एवं साधक की श्रेणियों में विभक्त सभी श्रावक अपनी-अपनी प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 007
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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