________________ भूमिका के अनुसार समाधिमरण प्राप्ति की भावना भाते हैं वहीं श्रमणचर्या में रत साधु आहार और कषायों को कृश करते रहने का निरन्तर उद्यम करते हैं। गुप्ति, समिति, मूलगुण आदि का पालन करते हुए अपनी चर्या के माध्यम से भावों को करने का निरन्तर प्रयास करते हैं। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् की अवधारणा का प्रचार-प्रसार करने वाला था चार्वाक दर्शन, जिसका एक मात्र साध्य ऐहिक सुख प्राप्त करना था। उसी अवधारणा का आज पुनः प्रचार-प्रसार हो रहा है। भोग-उपभोग की प्रवृत्ति को वृद्धिंगत करने वाले भाव विज्ञापन आदि के माध्यम से व्यंजित हो रहे हैं। अनेक भौतिक समृद्धियों के बीच भी आज मनुष्य एक विचित्र, किन्तु सत्याश्रित अनुभूति के धरातल पर रिक्तता की अनुभूति कर रहा है। उस रिक्तता की पूर्ति का उपाय आचार्यों ने श्रमण-परम्परा का पालन बताया है। उसे रत्नत्रय के माध्यम से पूर्ण करने की मात्र उद्घोषणा ही नहीं की है, वरन् जीवन में उतारने का उपक्रम भी किया है। पंचपरमेष्ठी का गुणानुवाद उसी रत्नत्रय का प्रारम्भिक सोपान है। ___ शाश्वत सुख प्राप्ति की लालसा प्राणिमात्र की स्वाभाविक लालसा है और धर्म ही उस लालसा को पूर्ण करने में सक्षम है। धर्म को उत्तम सुख प्राप्ति का साधन बतलाते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे / संसार के मूल में तृष्णा का भाव है और तृष्णा को जर्जर तथा निर्जर करने के उपाय के रूप में पूजा-भक्ति, जप-तप, संयम-साधना के मार्ग का प्ररूपण करना समस्त जिनवाणी का प्रतिपाद्य है। यही कारण है कि जिन-साधना सर्वोत्कृष्ट साधना मानी जाती है। सद्गृहस्थ से लेकर आचार्य मुनि इसी सर्वोत्कृष्ट साधना के पथिक हैं और उनका लक्ष्य है- परम सुख की प्राप्ति। साधु संसिद्धौ धातु से निष्पन्न साधना व्यापक अर्थ में प्रयुक्त है। साधना का निहितार्थ है- मनुष्य के उद्देश्य की सिद्धि / विषय-वासना की पूर्ति की साधना भी एक सांसारिक साधना है, जिसके लिए मनुष्य अहर्निश समरम्भ समारम्भ और आरम्भ की क्रियाओं में प्रवृत्त होता है, परन्तु अभीष्ट परम सुख ही प्राप्ति में ये बाधंक हैं। इसीलिए आचार्यों ने सद्गृहस्थ के लिए अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को अनिवार्य रूप से आचरणीय माना है। महाव्रती साधु की साधना तो समस्त आरम्भादि के सम्पूर्ण त्याग से प्रारम्भ होती है। साधना मार्ग में व्रत-नियम, संयम शक्तितः त्याग सब पाथेय हैं। इनके माध्यम से ही परम वीतराग अवस्था की प्राप्ति सम्भव होती है। जीवन की गति तो अबाध रूप से प्रवहमान है, परन्तु जीवन जीने की वास्तविक कला का आविर्भाव बिना संयम-साधना से सम्भव नहीं हो पाता, इसीलिए आचार्यों ने अवस्था विशेष में 800 . प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004