________________ वास्तव में मृत्यु देह के कपड़े बदलने जैसी प्रक्रिया है, थोड़े-थोड़े अन्तराल से सदा होती ही रहती है। वस्त्र मेरा है पर मैं वस्त्र नहीं हूँ। वस्त्र के मलिन हो जाने से, या उसके कटं-फट जाने से मैं न तो मलिन होता हूँ, न कटता-फटता ही हूँ। मैं अनन्त जन्मों और उतनी ही मृत्युओं का भुक्तभोगी हूँ। जन्म और मरण की इस अन्तहीन श्रृंखला के बीच सदा विद्यमान रहने वाला जो चेतन आत्मा है, वही और केवल वही मैं हूँ। जन्म और मरण मेरे कहे गये हैं, पर वे मेरे नहीं, शरीर के हैं। मैं तो अनादि से अन्त तक सदा विद्यमान, शाश्वत और नित्य, अजर-अमर चेतन तत्त्व हूँ। मृत्यु तो जीवन की परीक्षा है। ज्ञानी इसे एक सहज-स्वाभाविक और अनिवार्य घटना मानकर समता से निर्भय होकर इसका सामना करते हैं और इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। अज्ञानी इस परीक्षा का प्रश्न-पत्र सामने आते ही निराश और आतंकित होकर रोना-धोना प्रारम्भ कर देते हैं। फिर वे अपने जीवन के शेष क्षण भी संक्लेश और दुःख से परिपूर्ण कर लेते हैं। अन्त समय के संक्लेशों का प्रभाव आगामी जीवन पर भी पड़ला है, इसलिए जो मृत्यु से भयभीत होकर आतंकित हो जाता है वह अपने वर्तमान जीवन का अर्थ तो खो ही देता है, आगामी जीवन को भी अशान्त बना लेता है। . जैसे प्रसन्नतापूर्वक बिताये गये दिन के बाद रात्रि में सुखद-निद्रा आती है, उसी प्रकार जो अपने जीवन को भलीभाँति जियेगा, दूसरे जीवों को हानि पहुँचाये बिना, किसी से बैर बाँधे बिना, आगामी जीवन के लिए दुश्चिन्ताओं और दुराशाओं का बोझ सिर पर लिए बिना जो संतोष के साथ अन्तिम साँस लेगा, वह निश्चित ही सुखद-मृत्यु प्राप्त करेगा। जीवन की सफलता और मरण की सार्थकता का रहस्य इतना ही है कि मृत्यु को सामने आता देखकर जो मुँह छिपाता फिरा, रोने-कलपने लगा; वह मृत्यु से पराजित हो गया। इसके विपरीत जिसने सामने आती मृत्यु को ललकार कर उलाहना दे दिया कि 'हम तो कब से तैयार बैठे हैं, विलम्ब तो तुमने किया है, चलो, चलें।' ऐसे उत्साहपूर्वक जिसने मृत्यु की आँख से आँख मिलाकर, उसकी ओर मैत्री का हाथ बढ़ा दिया, जीत उसी की होती है। इसीलिए तो विवेकीजनों ने मरण के सोत्साह वरण को सल्लेखना नाम का तप कहा और मृत्यु को परम उपकारी मित्र बताया है। __चित्त के विकारों को धोकर आत्मा का ऐसा प्रक्षालन करके नवीन जन्म धारण करने के लिए निर्भय और निःशंक होकर प्रस्थान करने का यही संकल्प सल्लेखना है। अवश्यम्भावी, अटल मरण के सोत्साह वरण के इसी उत्सव को समाधि-साधना प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 0069