________________ तत्त्वार्थसूत्र एवं श्रावकाचारों में सल्लेखना। डॉ. जयकुमार जैन 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर धर्मसाधना का प्रथम साधन है। किसी भी धार्मिक क्रिया का अनुष्ठान स्वस्थ शरीर के बिना सम्भव नहीं होता है, अतः जब तक शरीर धर्मसाधना के अनुकूल रहे तब तक उसके माध्यम से धर्मसाधना करते हुए अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करना चाहिए। यदि कदाचित् शरीरनाश का अपरिहार्य कारण उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा या रोग उपस्थित हो जाय और प्रयत्न करने पर भी उसका प्रतीकार सम्भव न हो तो जैन-परम्परा में धर्म की रक्षा के लिए शरीर एवं कषाय के त्याग रूप सल्लेखना का विधान किया गया है। श्रावक को जीवन के अन्त में सल्लेखना धारण करने का विधान श्रावकाचार विषयक सभी ग्रन्थों में किया गया है। कतिपय ग्रन्थों में सल्लेखना के लिए संन्यासमरण या समाधिमरण शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों के धारक श्रावक को मारणान्तिकी सल्लेखना का आराधक कहा गया है- 'अणुव्रतोऽगारी। दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च / मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता। इन तीन सूत्रों के मध्यम सूत्र में च का ग्रहण गृहस्थ के लिए सल्लेखना की आराधना का निर्देश करने के लिए किया गया है।' तात्पर्य यह है कि जब कोई अव्रती श्रावक व्रती होकर जीवन बिताना चाहता है तो उसे जिस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना आवश्यक हो जाता है, उसी प्रकार सल्लेखना की आराधनां भी आवश्यक हो जाती है। यतः सल्लेखना की आराधना का व्रत मरण तक को ग्रहण किया जाता है, अतः इसे मारणान्तिकी सल्लेखना कहा गया है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में इसका कथन श्रावक धर्म के प्रकरण में किया गया है, तथापि यह व्रत मुनि और श्रावक दोनों के लिए है। आचार्य पूज्यपाद ने सल्लेखना का सामान्य लक्षण करते हुए कहा है- 'सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। अच्छी तरह से काय और कषाय की लेखना सल्लेखना है। बाहरी 4600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004