________________ प्रश्न : समर्थ और असमर्थ श्रावकों के लिए भक्तप्रत्याख्यान विधि क्या है? उत्तर : समर्थ श्रावक सभी प्राणियों से क्षमाभाव करके, हर्ष-शोक-भय-राग-द्वेष परिग्रह आदि को छोड़कर कृत-कारित-अनुमोदना से (छल-रहित होकर) समस्त पापों की आलोचना करते हुए मरणपर्यन्त समस्त महाव्रतों को आरोपित (धारण) करे। पश्चात् शास्त्रों का श्रवण करते हुए क्रमशः आहार को छोड़कर दुग्ध या छाछ को लेवे (बढ़ावे)। पश्चात् दुग्ध आदि को छोड़कर गरम जल को लेवे (बढ़ावे)। इसके बाद उष्णजल का भी त्याग करके शक्त्यनुसार उपवास करे तथा पंच नमस्कार को मन में धारण करते हुए शरीर त्याग करे। असमर्थ श्रावक पूर्ववत् आचरण करे। यह वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर अपने ही घर में या जिनालय में रहकर देव-गुरु के पास मन-वचन-काय से अपनी आलोचना करके पेय (पान) के सिवा तीनों प्रकार के आहार (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य) का त्याग करे। इसे उपासकाध्ययन में सल्लेखना नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है।” बिना सल्लेखना लिये अपने घर में ही संस्तरारूढ़ होकर साम्यभाव से शरीर का त्याग करना बाल पण्डित मरण कहलाता है। प्रश्न : क्या वैयावृत्य करनेवाला सल्लेखनाधारी को आहार आदि दिखा सकता है? उत्तर : हाँ। वैराग्य उत्पन्न करने के लिए ऐसा कर सकता है। इसमें वैयावृत्ति करनेवाले की सावधानी अपेक्षित है जिससे वह आहार की इच्छा होने पर उसे प्रतिबोधित कर सके। कभी-कभी स्वतः भी वेदना का उद्रेक हो सकता है, वह अयोग्य भाषण आदि भी करने लगता है। ऐसे में वैयावृत्ति करने वाले को या निर्यापकाचार्य को बहुत सावधान रहना पड़ता है।" प्रश्न : क्या सल्लेखना से अकालमृत्यु नहीं होती? उत्तर : मेरी दृष्टि में नहीं होती क्योंकि सल्लेखना लेने के जो कारण बतलाये गए हैं वे अकालमृत्यु का संकेत नहीं करते। जीवन की यदि आशा दिखे तो पारणा का भी निर्देश है। शरीर को आवश्यकतानुसार आहार दिया जाता है। आहार क्रमशः घटाने से उसका कुछ बिगड़ता नहीं है। अतः कुशल निर्यापकाचार्य का होना आवश्यक बतलाया गया है। कषायों के क्षीण हो जाने पर सम्यग्दृष्टि की मृत्यु कभी भी अकालमृत्यु नहीं कही जा सकती। इस तरह सल्लेखनापूर्वक मरण न तो अपमृत्यु है और न ही प्राणघात है। यह तो ज्ञानियों का उत्तम पण्डित मरण है। 4400 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004