________________ गिर जाता है, वैसे ही सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान रूपी नेत्र होते हुए आत्मस्वभाव में स्थिरता रूप चारित्र की सावधानी न हो, तो जीव संसार के गर्त में गिर जाता है, किन्तु सावधान होते ही अनन्त संसार में भटकने से बच जाता है। अतः सभी आगमों का सार आराधना है। मरणकाल में भक्तप्रत्याख्यानपूर्वक समाधिमरण करने से आराधना का सार प्राप्त होता है।' संन्यासमरण के भेद आगम में विस्तारपूर्वक मरण के सत्रह प्रकार कहे गए हैं। जीवन जन्मपूर्वक होता है, जन्म में प्राण-ग्रहण होता है, इसलिए प्राण-ग्रहण को जन्म और प्राण-त्याग को मरण कहा गया है। मरण इसप्रकार हैं- 1. आवीचिमरण (निषेक उदय में आकर खिरना) 2. तद्भवमरण (भवान्तर-प्राप्ति) 3. अवधिमरण (लोक-परलोक में समान मरण) 4. आदि-अन्त-मरण (अभी से अगला असमान मरण होना) 5. बालमरण (चारित्रहीन तत्त्वश्रद्धानी का मरण) 6. पण्डितमरण (चारित्रवान सम्यग्दृष्टि का मरण) 7. अवसन्नमरण (पार्श्वस्थ आदि साधुओं का मरण) 8. बाल-पण्डितमरण (सम्यक्त्व सहित देशचारित्री का मरण) 9. सशल्यमरण (शल्यपूर्वक मरण) 10. बलाकामरण (संस्तरारूढ़ होने पर भी शुभोपयोग से दूर रहना) 11. वोसट्टमरण (इन्द्रियाधीन होकर मरण) 12. विप्पासणमरण (दुर्भिक्ष, उपसर्ग, चोर आदि, शील-संयमादि दूषित होने के भय से प्रायश्चित्तपूर्वक मरण) 13. गिद्धपृट्ठमरण (आत्मविशुद्धिवान मुनि का शस्त्र द्वारा प्राण-त्याग करना) 14. भक्तप्रत्याख्यानमरण (काय व कषायों को कृश करते हुए संन्यासयुक्त विधिपूर्वक मरण) 15. इंगिनीमरण (साथी मुनि की सेवा लिए बिना आहार-जल आदि का त्याग कर मरण) 16. प्रायोपगमन मरण (सेवा तथा आहार-जलादि का त्याग कर एकान्त वन में काष्ठ के समान उत्तम ध्यान में लीन होकर शरीर-विसर्जन) 17. केवलीमरण (निर्वाण गमन)। - मरण के पाँच भेद भी कहे गए हैं- 1. पण्डित-पण्डितमरण 2. पण्डितमरण 3. बाल-पण्डितमरण 4. बालमरण 5. बाल-बालमरण। इन पाँच प्रकार के मरणों में से प्रथम तीन प्रशस्त हैं, क्योंकि उनसे जन्म-मरण का अभाव होता है। बालमरण और बाल-बालमरण अनन्त संसार की वृद्धि करनेवाले अप्रशस्त हैं तथा हेय हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने जीवन में यथासाध्य अधिक से अधिक समय धर्मचिन्तन तथा धर्मध्यान में लगाना चाहिए। . गुणस्थान की अपेक्षा कुबुद्धि जीवों का प्रथम-द्वितीय गुणस्थान में बाल बालमरण होता है। तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थान में बालमरण तथा पंचम गुणस्थान में बाल-पण्डितमरण एवं छठे गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त पण्डितमरण कहा गया है। बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में मरण नहीं है। चौदहवें गुणस्थान में पण्डित-पण्डितमरण होता है। यथार्थ में मिथ्यात्व अनन्त संसार को बाँधने वाला है। इसलिए मिथ्यादृष्टि का प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 37