________________ निज ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव कर उसमें ही स्थिर व लीन होने से समाधि होती है। यथार्थ समाधि वही है जो अतीन्द्रिय आनन्द परलोक में भी निज शुद्धात्मा में लीन होकर उसके साथ रहता है। इसप्रकार समाधिमरण हमारे जीवन का वह महोत्सव है जो दिव्य, अलौकिक, सत्य का साक्षात्कार कराता है और सदा-सदा के लिए हमें लोकोत्तर आह्लाद से भरपूर कर देता है। __केवल सम्यग्दर्शन होने से भी समाधिमरण नहीं हो जाता। इतना अवश्य है कि समाधिपूर्वक मरण सम्यग्दृष्टि को ही होता है, किन्तु सम्यग्दर्शन के साथ व्रतों का परिपालन भी आवश्यक है, क्योंकि अनादिकाल से अनन्तानन्त मिथ्यात्व सहित अनन्त बार बालमरण किया है, यदि एक बार भी पण्डितमरण किया होता तो फिर बार-बार मरण का पात्र नहीं होता। जब तक दृष्टि में से राग नहीं छूटा है, तब तक प्रवृत्ति में से राग नहीं छूट सकता है। इसलिए सर्वप्रथम चिन्तन में से राग-द्वेष हटाकर दृष्टि निर्मल करनी चाहिए। निरन्तर वीतरागता की भावना भानी चाहिए। यथार्थ में किसी भी वस्तु में राग-द्वेष नहीं पाया जाता, क्योंकि किसी भी द्रव्य का स्वभाव राग-द्वेष नहीं है। हमने मिथ्या कल्पना में राग-द्वेष-मोहादि विकारी भावों को अपना मान रखा है, किन्तु राग-द्वेष-मोहादि कोई वस्तु नहीं है। निज शुद्धात्म स्वभाव से ये विकारी भाव सर्वथा भिन्न हैं। इसलिए अनादिकाल से प्रत्येक वस्तु को हमने पर्यायबुद्धि से देखा है जो मिथ्याभाव है। मिथ्यादृष्टि होने से यह मिथ्याभाव है। अतः संन्यासमरण करने का इच्छुक प्रारम्भ में क्या करे? सल्लेखना व समाधिमरण का धारक सर्वप्रथम क्षमा करे और क्षमा माँगे कि प्रत्येक प्राणी को मैंने यदि भगवान् आत्मा से कम माना हो, समझा हो, उसकी अवज्ञा या अनादर किया हो, अपने से हीन या तुच्छ समझकर कष्ट दिया हो या पीड़ा पहुँचाई हो, तो एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख कुल कोडि जीवों से मिच्छामि दुक्कडं एवं सव्वे जीवा खमेइ मे कहकर क्षमा-याचना कर और सभी जीवों को खम्मामि सव्वजीवाणं कहकर क्षमा भाव करे। आचार्य समन्तभद्र ने (रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक 124 में) स्पष्ट रूप से कहा है कि स्नेह, बैर, संग, परिग्रह का त्याग कर स्वजनपरिजनों से क्षमा माँगे और स्वयं प्रिय तथा हितकारी वचनों से क्षमा प्रदान करे। किसी भी प्राणी के प्रति वैर, अभिमान, कपट, ईर्ष्या तथा स्नेह का भाव न रखे। आराधना की सिद्धि जिनागम में चारित्र का सार आराधना कहा गया है। आराधना की सिद्धि के लिए समाधिमरण किया जाता है। समता, गुप्ति, ध्यान, योग (आत्मस्वभाव में लीनता) की साधना से तथा अन्तकाल में समाधि से सिद्धि उपलब्ध होती है। इस सिद्धि के लिए सतत अभ्यास करना होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप -ये चार आराधनाएँ कही गई हैं। ध्यान, योग आदि इनके ही परिकर हैं। जैसे नेत्रों से अवलोकन करते हुए यदि उपयोग सावधान नहीं रहे तो प्राणी गर्त में 3600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004