________________ आत्म-साधना का शिरवर : समाधिमरण . डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री जैनधर्म के अनुसार जन्म-मरण होना एक असाध्य व्याधि है, जिसका मूल कारण मोह है, उसका प्रतिकार समाधिमरण है। केवल शरीर या घर-द्वार छोड़ कर संस्तरणमरण करने का नाम सल्लेखना या समाधिमरण नहीं है; किन्तु अंते समाहिमरणं बोहिलाहं च अर्थात मानव-जीवन में आत्मसाधना के विकास-क्रम में बोहिलाहं बोधि का लाभ अर्थात् रत्नत्रय (शुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र) प्राप्त करना ही समाधिमरण का कार्य है, अतः सम्यग्दर्शन हुए बिना समाधिमरण नहीं होता। जिनागम में आराधना दो प्रकार की कही गई है- 1. दर्शन आराधना 2. चारित्र आराधना। सम्यक्त्व की आराधना होने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है, क्योंकि श्रद्धा का ज्ञान के साथ अविनाभाव है। अतः समीचीन श्रद्धान तथा सम्यग्ज्ञान दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। आचार्य अमितगति (द्वितीय) का कथन है कि सम्यक्त्वाराधना के फल का यह अतिशय है कि जो जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व से संयुक्त थे, वे भी अल्प काल में इस आराधना के प्रभाव से सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं।' सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक नहीं होता, इसलिए मिथ्यादृष्टि ज्ञान का आराधक नहीं होता। जो संसार के विषय-भोगों में मग्न हैं, जिनको राग-रंग भले लगते हैं और पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जुटाने में आसक्त हैं, उनको आत्मज्ञान तथा आत्म-साधना कैसे रुच सकती है? अज्ञानी या मिथ्यादृष्टि की रुचि संसार में है, इसलिए संसार के कार्यों में उसकी संलग्नता होती है। आत्मधर्म का कार्य लौकिक या सांसारिक नहीं है। धर्म तो जन्म-मरणं का अभाव करनेवाला है। कहा है- जिसमें जन्म-मरण रूपी जल का प्रवाह भरा है, दुःखसंक्लेश एवं शोक रूपी लहरें उठा करती हैं, उस संसार रूपी समुद्र को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तपरूपी नाव से पार करते हैं। ___ यद्यपि जैन कथाओं में यह वर्णन किया गया है कि अन्त समय में सर्प, हाथी तथा चोर, डाकू, चाण्डाल आदि णमोकार मन्त्र के प्रभाव से सुगति को प्राप्त हुए। वास्तव में उन सबमें परिणामों की विशुद्धि अन्तरंग कारण है। जीवन के अन्तिम समय में जीव के जैसे परिणाम होते हैं, वैसी ही गति प्राप्त होती है- जैसी मति, 3400 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004