________________ मैं छोड़ रहा हूँ और सब जीवों को अभयदान देता हूँ तथा विचरण करते हुए किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा किन्तु यह कथन संन्यासी के मरणान्त समय के विधिविधान को नहीं बतलाया, केवल संन्यास लेकर आगे की जानेवाली चर्यारूप प्रतिज्ञा का दिग्दर्शन कराता है। स्पष्ट है कि यहाँ संन्यास का वह अर्थ विवक्षित नहीं है जो जैन-सल्लेखना का अर्थ है। संन्यास का अर्थ यहाँ साधु-दीक्षा - कर्मत्याग-संन्यास नामक चतुर्थ आश्रम का स्वीकार है। और सल्लेखना का अर्थ अन्त (मरण) समय में होनेवाली क्रिया-विशेष” (कषाय एवं काय का कृशीकरण करते हुए आत्मा को) कुमरण से बचाना तथा आचरित संयमादि आत्मधर्म की रक्षा करना है। अतः सल्लेखना जैनदर्शन की एक विशेष देन है, जिसमें पारलौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उज्ज्वलतम तथा परमोच्च बनाने का लक्ष्य निहित है। इसमें रागादि से प्रेरित होकर प्रवृत्ति न होने के कारण वह शुद्ध आध्यात्मिक है। निष्कर्ष यह कि सल्लेखना आत्म-सुधार एवं आत्म-संरक्षण का अन्तिम और विचारपूर्ण प्रयत्न है। सन्दर्भ : 1. गीता, 2-27 2-3. मृत्युमहोत्सव, श्लोक 17 4. मृत्युमहोत्सव, श्लोक 10 5. मृत्युमहोत्सव, श्लोक 15, गीता, 2/22 6. सर्वार्थसिद्धि, 7/22, तत्त्वार्थसूत्र, 7/22 7. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7/22 8. भगवती आराधना, 681 9. भगवती आराधना, 680 10. सागारधर्मामृत, 8/6 11. सागारधर्मामृत, 8/10 12. आदर्श सल्लेखना, पृ. 19 13. मृत्युमहोत्सव, श्लोक 21, 23 14. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 123 15. सर्वार्थसिद्धि, 7/22 16. सागारधर्मामृत, 8/7 17. भारती, पू पृ. 87 18. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 124-128 19. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 129 20. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 130 21. सागारधर्मामृत, 7/58, 8/27-28 . 22. भगवती आराधना 645, 646, 672 23. सागार धर्मामृत 8/48 से 8/107 24. भगवती आराधना, 2000 25. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 56-58 26. वही, गाथा 61 27. भगवती आराधना, गाथा 26 28. भगवती आराधना, गाथा 27 29. भगवती आराधना, 28-30 30. भगवती आराधना, गाथा 1997-2005 31-32. हिन्दू संस्कार, पृष्ठ 296 33. वही, पृष्ठ 303 34. वही, पृष्ठ 303 तथा निर्णयसिन्धु, पृष्ठ 447 35. हिन्दू संस्कार, पृष्ठ 346 36. निर्णयसिन्धु, पृष्ठ 447 37. वैदिक साहित्य में यह क्रिया-विशेष भृगु-पतन, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश आदि के रूप में मिलती है, जैसा कि माघ के शिशुपालवध (4/23) की टीका में उद्धृत निम्न पद्य से जाना जाता है- अनुष्ठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यतः। भग्वग्नि-जल-सम्पातैर्मरणं प्रविधीयते।। किन्तु जैन संस्कृति में इसप्रकार की क्रियाओं को मान्यता नहीं दी गई और उन्हें लोकमूढता बतलाया गया है :आपंगा-सागर-स्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम्। गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते।। -रत्नकरण्डश्रावकाचार 22 . प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 10 33