________________ 2. इंगिनी - जिस शरीर-त्याग में क्षपक अपने शरीर की सेवा-परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरे से नहीं कराता, उसे इंगिनी-मरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं उठेगा, स्वयं बैठेगा और स्वयं लेटेगा और इस तरह अपनी समस्त क्रियाएँ स्वयं ही करेगा। वह पूर्णतया स्वावलम्बन का आश्रय ले लेता है। 3. प्रायोपगमन- जिस शरीर-त्याग में इस सल्लेखना का धारी न स्वयं अपनी सहायता लेता है और न दूसरे की, उसे प्रायोपगमन-मरण कहते हैं। इसमें शरीर को लकड़ी की तरह छोड़कर आत्मा की ओर ही क्षपक का लक्ष्य रहता है और आत्मा के ध्यान में ही वह सदा रत रहता है। इस सल्लेखना को साधक तभी धारण करता है जब वह अन्तिम अवस्था में पहुँच जाता है और उसका संहनन (शारीरिक बल और आत्म-सामर्थ्य) प्रबल होता है। भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना के दो भेद इनमें भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना दो तरह की होती है :- 1. सविचार-भक्तप्रत्याख्यान 2. अविचार-भक्तप्रत्याख्यान / सविचार-भक्तप्रत्याख्यान में आराधक अपने संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करता है। यह सेल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीघ्र मरण न होने की हालत में ग्रहण की जाती है। इस सल्लेखना का धारी अर्ह आदि अधिकारों के विचारपूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है। इसीसे इसे सविचार-भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना कहते हैं। पर जिस आराधक की आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होनेवाला है तथा दूसरे संघ में जाने का समय नहीं है और न शक्ति है वह मुनि दूसरी अविचार-भक्त-प्रत्याख्यानसल्लेखना लेता है। इसके भी तीन भेद हैं :- 1. निरुद्ध 2. निरुद्धतर 3. परम-निरुद्ध / * निरुद्ध- दूसरे संघ में जाने की पैरों में सामर्थ्य न रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या उपसर्गादि आ जायें और अपने संघ में ही रुक जाय तो उस हालत में मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है। इसलिए इसे निरुद्ध-अतिचार-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते हैं। यह दो प्रकार की है(क) प्रकाश (ख) अप्रकाश। लोक में जिनका समाधिमरण विख्यात हो जाये, वह प्रकाश है तथा जिनका विख्यात न हो, वह अप्रकाश है। निरुद्धतर- सर्प, अग्नि, व्याघ्र, महिष, हाथी, रीछ, चोर, व्यन्तर, मूर्छा, दुष्टपुरुषों आदि के द्वारा मारणान्तिक आपत्ति आ जाने पर आयु का अन्त जानकर निकटवर्ती आचार्यादिक के समीप अपनी निन्दा, गर्दा करता हुआ साधु शरीरत्याग करे तो उसे निरुद्धतर-अविचार-भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण कहते हैं। परमनिरुद्ध- सर्प, व्याघ्रादि के भीषण उपद्रवों के आने पर वाणी रुक जाय, बोल न निकल सके, ऐसे समय में मन में ही अरहन्तादि पंचपरमेष्ठियों के प्रति 3000 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004