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________________ को वश में करो, सदैव आत्मा में ही आत्मा का ध्यान करो। मिथ्यात्व के समान दुःखदायी और सम्यक्त्व के समान सुखदायी तीन लोक में अन्य कोई वस्तु नहीं है। परीषहों और उपसर्गों को जीतकर महाव्रत का पालन करने से अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त होता है अतः धीरता-वीरता से सब कष्टों को सहन करते हुए आत्मलीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि उत्तम प्रकार से हो और तुम अभ्युदय तथा निःश्रेयस को प्राप्त करो। इसतरह निर्यापक मुनि क्षपक को समाधिमरण में निश्चल और सावधान बनाये रखते हैं। क्षपक के समाधिमरण महान् यज्ञ की सफलता में इन निर्यापक साधुवरों का प्रमुख एवं अद्वितीय सहयोग होने से उनकी प्रशंसा करते हुए आचार्य शिवार्य ने लिखा है :- वे महानुभाव (निर्यापक मुनि) धन्य हैं, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बड़े आदर के साथ क्षपक की सल्लेखना कराते हैं। 4 सल्लेखना के भेद जैनशास्त्रों में तीन प्रकार से शरीर का त्याग बताया है :- 1. च्युत 2.च्यावित 3. त्यक्त। 1. च्युत - जो आयु पूर्ण होकर शरीर का स्वतः छूटना है, वह च्युत कहलाता है। .. 2.. च्यावित - जो विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, शस्त्र-घात, संक्लेश, अग्नि- दाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन आदि निमित्तकारणों से शरीर छोड़ा जाता है, वह च्यावित कहा गया है। 3. त्यक्त - रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता तथा मरण की व्यासन्नता ज्ञात होने पर जो विवेक-सहित संन्यासरूप परिणामों से शरीर छोड़ा जाता है, वह त्यक्त है। इन तीन प्रकार के शरीर-त्यागों में त्यक्तरूप शरीर-त्याग सर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योंकि त्यक्त अवस्था में आत्मा पूर्णतया जागृत एवं सावधान रहता है तथा कोई संक्लेश परिणाम नहीं होता। इस त्यक्त शरीरत्याग को ही समाधि-मरण, संन्यास-मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखनामरण कहा गया है। यह सल्लेखना-मरण (त्यक्त शरीर-त्याग) भी तीन प्रकार का प्रतिपादित किया गया है :- 1. भक्तप्रत्याख्यान 2. इंगिनी 3. प्रायोपगमन। - 1. भक्तप्रत्याख्यान- जिस शरीर-त्याग में अन्न-पान को धीरे-धीरे कम करते हुए छोड़ा जाता है उसे भक्त-प्रत्याख्यान या भक्त-प्रतिज्ञा-सल्लेखना कहते हैं। इसका काल-प्रमाण न्यूनतम अन्तर्मुहूर्त है और अधिकतम बारह वर्ष है। मध्यम अन्तर्मुहूर्त से ऊपर तथा बारह वर्ष से नीचे का काल है। इसमें आराधक आत्मातिरिक्त समस्त पर-वस्तुओं से राग-द्वेषादि छोड़ता है और अपने शरीर की टहल स्वयं भी करता है और दूसरों से भी कराता है। प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 29
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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