________________ कृश करना सल्लेखना है। सल्लेखना का महत्त्व व फल स्वर्गों में अनुत्तर भोग भोगकर वे वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यभव में जन्म धारण कर सम्पूर्ण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनि धर्म व तप आदि का पालन करते हैं। शुक्ल लेश्या की प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लध्यान से संसार का नाश करते हैं। कर्मरूपी कवच को तोड़ कर सम्पूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं। इस गृहस्थ धर्म का पालन कर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपर्याय को प्राप्त होता है और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है। अधिक से अधिक आठ भवों में मुक्ति प्रदान करता है। __ भगवती आराधना में कहा है कि जो यति एक भव में समाधि से मरण करता है वह अनेक भव धारण कर संसार में भ्रमण नहीं करता है। उसको सात-आठ भव धारण करने के पश्चात् अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होगी। स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम्। -(सर्वार्थसिद्धि 7/22-/362/12) अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय -इन तीन बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है। __आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात् -(धवला, 1/1/234) आयु कर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। भगवती आराधना - प्राणों के परित्याग का नाम मरण है। अथवा प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का विनाश होना मरण है। अथवा अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ से विनष्ट होना मरण है। धवला 6/1/477 - सूत्रकार भूतबलि आचार्य ने भिन्न-भिन्न गतियों से छूटने के अर्थ में सम्भवतः गतियों की हीनता व उत्तमता के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है। नरकगति एवं भवनवासी, वानव्यंतर और ज्योतिषी -ये तीन देवगतियाँ हीन हैं, इसलिए इनसे निकलने के लिये 'उद्वर्तन' अर्थात् उद्धार होना कहा है? तिर्यंच और मनुष्य गतियाँ सामान्य हैं, अतएव उनसे निकलने के लिये ‘काल करना' शब्द का प्रयोग किया है और सौधर्मादिक विमानवासियों की गति उत्तम है, अतएव वहाँ से निकलने के लिये 'च्युत' होना इस शब्द का उपयोग किया गया है। मरण के भेद मरण पाँच प्रकार का है - पण्डितपण्डित, पण्डित, बालपण्डित, बाल, बालबाल / पण्डितमरण तीन प्रकार का है- प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान व इंगिनी। 1800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004