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________________ सल्लेखना आत्मकल्याण है __ आर्यिका बाहुबली माताजी सल्लेखना से ही समाधिमरण होता है और समाधिमरण से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए ज्ञानीजन सल्लेखना को धारण करते हैं। ज्ञानी को अपनी आयु पूर्ण होने के समय का आभास हो जाता है, इसलिए वे बारह साल, छह साल या एक अन्तमुहूर्त की अर्थात् उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य सल्लेखना धारण करते हैं। स्वेच्छापूर्वक शरीर का त्याग करते हैं। ज्ञानी, साधु, सज्जन आत्मा का जीवन परोपकार से ओत-प्रोत (भरा हुआ) रहता है। वे ‘परस्परोपग्रहो जीवानां' इस सूत्र को अपने जीवन की आधारशिला बनाकर चलते हैं। साधु जीवन साधना के लिए होता है, साधुजन आत्मसाधना, स्वकल्याण के लिए करते हैं, परन्तु उस स्वकल्याण में परकल्याण निश्चित होता है। साधु की सल्लेखना से उनका उच्चकोटि का विचार जान सकते हैं। जैसे- शरीर के माध्यम से जब तक साधु आत्मसाधना कर सकते हैं तब तक शरीर को आहार देते हैं परन्तु जब शरीर या इंन्द्रियों के निमित्त से आत्मसाधना में बाधा आने लगती हैं तब वे इस बात को समझ लेते हैं कि अब शरीर हमें छोड़ने वाला है, तो स्वयं शरीर को छोड़ने के लिए धीर-वीर होते हैं, और आगम के अनुसार सल्लेखना धारण करते हैं। परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज भी 36 दिनों की सल्लेखना के द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने में अग्रसर रहे। सल्लेखनापूर्वक यदि मरण होता है तो उसे समाधिमरण कहा जाता है। हर जीव को समाधिमरण नहीं होता है। समाधिमरण उन्हीं जीव को होता है जो कुछ भव के बाद मोक्ष जाने वाले हैं। सल्लेखना .. 'सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना / कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना।' * अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय और कंषाय को पुष्ट करनेवाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 17
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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