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________________ होगा? अवश्य होगा। णमोकार मन्त्र के एक अक्षर का भाव-सहित स्मरण करने से सात सागर पर्यन्त भोगे जाने वाले पापों का, भावसहित एक पद के स्मरण से 50 सागर पर्यंत भोगे जाने वाले पापों का, भावसहित सम्पूर्ण मन्त्र के स्मरण से 500 सागर पर्यंत भोगे जाने वाले पापों का नाश हो जाता है तथा भावपूर्वक एक लाख जप करनेवाला तीर्थंकर होता है- इसमें सन्देह नहीं है, अतः आपको असंख्य दुःखों का क्षय करने वाले और इस निःकृष्ट पंचम काल में भी कल्पवृक्ष के सदृश मनोरथों को पूर्ण करने वाले इस महामन्त्र का स्मरण निरन्तर करना चाहिए। ज्ञानोपयोग की महत्ता का उपदेश स्वतत्त्व और परतत्त्व का प्रकाश करने के लिए सम्यग्ज्ञान, दीपक के सदृश है और चित्तरूप मदोन्मत्त हाथी को वशीभूत करने के लिए अंकुश के समान है। जिस प्रकार सुचारु रूप से सिद्ध की हुई विद्या पिशाचों को भी मनुष्य के अधीन कर देती है, उसी प्रकार भलीप्रकार से आराधित सम्यग्ज्ञान, मन रूपी पिशाच को आत्मा के अधीन कर देता है। आपको भी इस ज्ञानोपयोग की स्थिरता द्वारा अपने मन को क्षुधादि परीषहों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले अशुभ ध्यान से मोड़कर आत्माधीन करना चाहिए। जिस प्रकार विधिपूर्वक आराधित मन्त्र कृष्ण सर्प के क्रोध को उपशमित कर देता है, उसी प्रकार दिगम्बर गुरुजनों से आराधित ज्ञान, मन रूपी कृष्ण सर्प की भयंकरता को उपशमित कर देता है। जैसे गजबन्धनी के द्वारा मदोन्मत्त हाथी को बाँधकर पुरजन-परिजन की रक्षा की जाती है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान रूपी वरत्रों से मन रूपी हाथी को बाँधकर आत्मा के गुणों की रक्षा करनी चाहिए। जिस प्रकार बन्दर एक क्षण भी निर्विकार स्थित रहने में असमर्थ है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियों के विषय के बिना यह मन एक क्षण भी निर्विकार स्थित रहने में असमर्थ है, अतः इसे परमागम में इस प्रकार रमण कराना चाहिए, जिससे वह सल्लेखना रूपी महायज्ञ में विघ्न उपस्थित न कर सके। सूर्य आदि सभी उद्योतों से ज्ञान का उद्योत सर्वोत्कृष्ट है, क्योंकि इस उद्योत को न कोई रोक सकता है, न नष्ट कर सकता है, न हरण कर सकता है और न मलिन कर सकता है। यह ज्ञान रूप उद्योत सम्पूर्ण लोक-अलोक को प्रकाशित करने में समर्थ है। आपके पास बहुत ज्ञान है, अतः आप उस ज्ञान के बल से अपनी समाधि के अनुष्ठान को सफल बनाने का प्रयत्न करो। चारित्राराधना की शुद्धि का उपदेश __आपको गुरु द्वारा प्रदत्त पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधिवत् पालन करके चारित्र की विशुद्धि करनी चाहिए, क्योंकि चारित्र की. विशुद्धि ही कर्मों का संवर और निर्जरा कराकर मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ है। प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 177
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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