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________________ अर्हदादि-भक्ति का माहात्म्य इस समाधि के समय आपके हृदय में जिनेन्द्र भगवान् के प्रति अन्तःकरण से भावशुद्धिपूर्वक विशेष अनुराग होना चाहिए, क्योंकि अकेली जिनभक्ति ही सम्पूर्ण कार्यों को सिद्ध करने में समर्थ है, मुक्ति के लिए परम कारण है, दुर्गतिनिवारण में सक्षम है, सिद्धिपर्यंत सुखों के कारणभूत पुण्य को परिपूर्ण करने वाली है और सम्पूर्ण रूप से अपायों को दूर कर मनोरथों की पूरक हैं। अर्हद्भक्ति के सदृश पंचपरमेष्ठी, जिनचैत्य (बिम्ब), जिनचैत्यालय, जिनवचन और जिनधर्म में भी आपका अनुराग होना चाहिए, क्योंकि परमेष्ठी के गुणों में अनुराग करने वाला ही आत्मगुणों में अनुराग करेगा और मोक्ष प्राप्त करेगा। अनुराग तो बन्ध का कारण है, फिर पंचपरमेष्ठी का अनुराग मोक्ष का कारण इसलिए कहा गया है कि वीतराग अर्हन्तादि के प्रति होने वाला अनुराग विषय, कषाय, शरीर एवं धनधान्यादि के प्रति होने वाले अनुराग से अत्यन्त भिन्न है अर्थात् यह अनुराग समस्त परवस्तुओं के रागभाव का अभाव कराकर वीतरागरूप निजभाव में स्थिति करा देने वाला है, अतः जब तक ध्यान, ध्याता और ध्येय की एकता नहीं होती तब तक परमात्मा आदि में अनुराग करना चाहिए। जो पुरुष चारों आराधनाओं के अधिनायक पंच परमेष्ठियों में भक्ति नहीं करता, वह उत्कृष्ट संयम धारण करते हुए भी मानो ऊसर भूमि में धान्य बोता है, क्योंकि जैसे ऊसर भूमि में डाला गया बीज नष्ट हो जाता है, वैसे ही भक्ति बिना संयमादि गुण नष्ट हो जाते हैं। जो पुरुष आराधनाओं के धारक पंच परमेष्ठियों में भक्ति किये बिना ही अपनी आराधना की सिद्धि चाहता है, वह मानो बीज बिना धान्य की और मेघ बिना वर्षा की इच्छा करता है। जैसे वर्षा बिना धान्य नहीं होता, वैसे ही पंचपरमेष्ठी की भक्ति बिना चारों आराधनाओं की उत्पत्ति नहीं होती। अतः आपको इस सल्लेखनारूपी सरिता को पार करने के लिए भक्तिरूपी नौका का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। . णमोकार मन्त्र के चिन्तन का उपदेश ___पंच नमस्कार मन्त्र का चिन्तन कषायों की मन्दता और आराधना की सफलता कराने वाला है; संसार का छेद करने में समर्थ है, क्योंकि जैसे सेनापति के बिना चतुरंगसेना कुछ नहीं कर सकती उसी प्रकार सल्लेखना के समय पंच-नमस्कार रूप भाव नमस्कार के बिना चारों आराधनाओं में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जैसे हाथ के बिना ध्वजा का ग्रहण नहीं हो सकता उसी प्रकार पंचनमस्कार मन्त्र की शरण बिना आराधना रूपी पताका का भी ग्रहण नहीं हो सकता। जब इस चमत्कारी मन्त्र के प्रभाव से एक ही भव में मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, तब चारों आराधनाओं के सुचारु रीति से पालन करने पर आपका संसारविच्छेद क्यों नहीं 1760 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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