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________________ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण -इन पाँच शरीरों में से औदारिक शरीर की उत्पत्ति एवं रचना अत्यन्त घृणास्पद तत्त्वों अर्थात् हड्डी, मांस, रुधिर और चर्म आदि से होती है तथा इसकी अवस्थिति भी इसके योग्य भोजन पान एवं अन्य पोषक पदार्थों के बिना नहीं होती। यह औदारिक शरीर अधिक प्रयत्नों द्वारा रक्षित रहता है और अति अशुचि है, किन्तु रत्नत्रय का आधार होने से आत्मा को मोक्षमहल में ले जाने में अन्धे की लकड़ी के सदृश सहायक भी यही होता है। 'आचारसार' में श्रीवीरनन्दि आचार्य कहते हैं कि जब चूल्हे में जलाई जाने वाली लकड़ी भी सिर पर रखकर लाई जाती है तब मोक्षप्राप्ति का साधनभूत यह शरीर प्रयत्नपूर्वक रक्षणीय है किन्तु इसकी रक्षा तभी तक योग्य है जब तक यह हमारे रत्नत्रय के पालन में सहयोगी है, इसके बाद तो इसे सल्लेखनापूर्वक कृश ही करना चाहिए। इसी बात को आचार्य पूज्यपाद दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं कि मरण किसी को इष्ट नहीं है। अनेक प्रकार के रत्न आदि बहुमूल्य पदार्थों का व्यापार करने वाले किसी व्यापारी को अपने गृह का विनाश इष्ट नहीं है; यदि कदाचित् उसके विनाश के कारण उपस्थित हो जायँ तो वह उसकी रक्षा का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल नहीं होता, तब घर में रखे हुए उन बहुमूल्य पदार्थों को निकाल लेता है और घर को अपनी आँखों के सामने ही नष्ट होते देखता है। इसी प्रकार व्रतशीलादि गुणों का अर्जन करने वाले श्रावक और साधु उन व्रतादि गुणरत्नों के आधारभूत शरीर की रक्षा पोषक आहार-ओषधि आदि के द्वारा करते हैं, उसका नाश उन्हें इष्ट नहीं। यदि शरीर में असाध्य रोग आदि उपस्थित हो जायँ तो वे उनको दूर करने का यथासाध्य प्रयत्न करते हैं और जब उनका दूर होना अशक्य मालूम होता है तब सल्लेखना द्वारा अपने आत्मगुणों की रक्षा करते हैं और शरीर को नष्ट होने देते हैं। सकलकीर्त्याचार्य सल्लेखना अंगीकार करने के कारण बतलाते हुए कहते हैं कि इन्द्रियों की शक्ति मन्द होने पर, अतिवृद्धता, उपसर्ग एवं व्रतक्षय के कारण उपस्थित होने पर, महान् दुर्भिक्ष पड़ने पर, असाध्य और तीव्र रोग आ जाने पर, जंघाबल (कायबल) क्षीण हो जाने पर धर्मध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि करने की शक्ति क्षीण हो जाने पर, विद्वानों को चाहिए कि मोक्ष (आत्म-कल्याण की) प्राप्ति के लिए समाधिमरण ग्रहण करें। मूलाराधना में भी आचार्य लिखते हैं कि जिसका कोई प्रतीकार न हो सके- ऐसा असाध्य रोग उपस्थित होने पर; रूप, बल, बुद्धि और विवेकादि गुणों का नाश करनेवाली वृद्धावस्था आ जाने पर; देव, मनुष्य तिर्यंच अथवा आकरिमक उपसर्ग आ जाने पर; चक्षु या कर्ण इन्द्रिय की शक्ति क्षीण हो जाने पर और भविष्य में समाधि करानेवाले निर्यापकाचार्य नहीं मिलेंगे' ऐसा भय प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 01 171
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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