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________________ मानव को भय उनसे होता है जिनसे उसका परिचय नहीं होता, किन्तु हमारा तो इस मरण से मात्र एक-दो बार नहीं, प्रत्युत अनन्त बार परिचय हो चुका है तथा इस क्रिया का रोगादि के द्वारा, क्षुधादि के द्वारा अतिशीत, अति उष्णता के द्वारा या तीव्र क्रोधादि के आवेश में आकर विषभक्षणादि के द्वारा एवं अज्ञानतावश अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, श्वासनिरोध, शस्त्रप्रयोग एवं गिरि-पात आदि के द्वारा मरण करके खूब अभ्यास भी किया है, फिर भी हमें इस मृत्यु से भय ही होता है क्योंकि अभी तक हमें इसकी यथार्थता का परिचय नहीं हुआ। जिन महापुरुषों ने मरण की यथार्थता को आत्मसात कर लिया है, उन्होंने मरण को मृत्यु-महोत्सव कहा है क्योंकि मृत्यु-सदृश हमारा उपकारी अन्य कोई नहीं है। ' मृत्यु की विलक्षणता का समीचीन दिग्दर्शन जैनदर्शन कराता है। जैनदर्शन जिस प्रकार जीवन के मार्ग को प्रशस्त बताता है, उसी प्रकार मरण के मार्ग को भी प्रशस्त बताता है और मरण की इसी प्रशस्तता का अपर नाम सल्लेखना या समाधिमरण है। सल्लेखना का लक्षण आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि सम्यक प्रकार से काय और कषाय को कृश करने का नाम सल्लेखना है। बाह्य और आभ्यन्तर अर्थात् शरीर और रागादि कषायों को उनके कारणों को क्रमशः कम करते हुए स्वेच्छापूर्वक कृश करने का नाम सल्लेखना या समाधिमरण है। समन्तभद्राचार्य भी रत्नकरण्डश्रावकाचार में सल्लेखना का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि प्रतीकाररहित उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धता और रोग के उपस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर छोड़ने को सल्ल्खना कहते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, तप, त्याग और संयम आदि गुणों के द्वारा चिरकाल तक आत्मा को भावित करने के बाद आयु के अन्त में अनशनादि विशेष तपों के द्वारा शरीर को और श्रुतरूपी अमृत के आधार पर कषायों को कुश करना ही सल्लेखना है। जिस प्रकार मूल (जड़ से उखाड़ा हुआ विषवृक्ष ही प्रयोजन की सिद्धि करता है, मात्र शाखाओं, डालियों एवं पत्रों आदि का काटना नहीं; उसी प्रकार कषायों की कृशता के साथ की हुई कायकृशता ही प्रयोजन की संरक्षिका है, मात्र काय की कृशता नहीं। .. सल्लेखना कब करनी चाहिए? “प्रतिदिवसं विजहद् बलमुज्झद् भुक्ति त्यजत्प्रतीकारम् / वपुरेव नृणां निगदति चरमचरित्रोदयं समयम् / / " चिरकाल से पोषित इस शरीर की शक्ति जव प्रतिदिन क्षीण हो रही हो, भोजन छूट रहा हो, रोगादिक का प्रतीकार न हो सके, ऐसा अवसर आने पर मनुष्य को समाधिमरण धारण करना चाहिए। 170 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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