________________ वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतराग भाव से जो आत्मा को हटाता है उसे परम समाधि होती है। "संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण। जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।।” –नियमसार, 123 संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि होती है। आचार्य योगीन्दु देव ने कहा है “सयल वियप्पहँ जो विलउ, परमसमाहि भणंति। .. तेण सुहासुहभावडा मुणि सयल वि मेल्लंति।।"-परमात्मप्रकाश, 2/190 समस्त विकल्पों के नाश को परम समाधि कहते हैं, इसलिए मुनिराज समस्त शुभाशुभ विकल्पों को छोड़ देते हैं। “यत्सम्यक् परिणामेषु चित्तस्य धानमञ्जसा। सः समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् / / " -महापुराण, 21/226 सम्यक् (उत्तम) परिणामों में चित्त का स्थिर रहना यथार्थ में समाधि या समाधान है, अथवा पंच-परमेष्ठियों के स्मरण को समाधि कहते हैं। धर्मं शुक्लं च ध्यानं समाधिः। -स्वयम्भू स्तोत्र, टीका. 16/29 धर्मध्यान व शुक्लध्यान को समाधि कहते हैं। बहिरन्तर्जल्पत्यागलक्षणः योगः स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणं समाधिः / -स्याद्वाद मंजरी, श्लोक 17 बाह्य और अन्तर्जल्प के त्याग का नाम योग है। उसमें योग में अथवा निज स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है। इस प्रकार समाधि का लक्षण कहा। अब सल्लेखना के सम्बन्ध में कहते हैं। सल्लेखना का अर्थ है- सम्यक् रीति से संयम की साधना करते हुए, कषाय व काय को कृश करना। जब शरीर संयम-साधना, जिनाराधना, तप, प्रशस्त ध्यान व अध्ययन आदि क्रियाओं को करने में असमर्थ होने लगता है, तब साधक संयम का परित्याग न करते हुए, उत्तम भावों के साथ क्रमशः कषाय व शरीर को कृश करते हुए शरीर का ही परित्याग कर देते हैं, किन्तु धर्म का त्याग नहीं करते। जिस प्रकार कुशल नाविक नाव के जर्जर होने पर नाव की नहीं अपितु उसमें विद्यमान धन की रक्षा करता है। कुशल मानव मकान में आग लगने पर मकान की नहीं अपितु उसमें विद्यमान बहुमूल्य चेतन व अचेतन रत्नों की रक्षा करता है, उसी प्रकार सर्वारम्भ परिग्रह से रहित, यथाजातरूपधारी दिगम्बर सन्त, साध्वियाँ व अन्य उनके समीपस्थ साधनारत श्रावक अपने शरीर को संयम-साधना में अक्षम मानते प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 0 15