________________ है। जैसे स्वयं दान में दिये गये धन से सुख मिलता है और डाकू के भय से दिये गये धन से दुःख। ऐसे ही सहर्ष देह-परित्याग से स्वर्ग के सुख भी प्राप्त हो जाते हैं। ____ महाबल ने सल्लेखना लेकर अनेक कठिनाइयाँ आने पर भी जैसे उसका निर्वहन किया, ऐसे ही सल्लेखना लेकर उसमें स्थिर होना चाहिए। भेदविज्ञान इसके लिए आवश्यक है। उसके बिना देहगत ममत्व दूर नहीं होता। देह और आत्मा के पृथक्त्व में दृढ़ता रहने पर शारीरिक कष्ट दुःखदायी प्रतीत नहीं होते, क्योंकि देह के प्रति राग का अभाव हो जाता है। राग-द्वेष के न रहने से कषायें भी कृश हो जाती हैं। सल्लेखनापूर्वक मरण किसी राग-द्वेष या मोहवश नहीं किये जाने से उसे आत्मघात की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इसमें प्रमाद नहीं रहता, जबकि आत्मघात में प्रमाद पाया जाता है। सल्लेखना में समय अधिक भी लग सकता है, पर धैर्य रखकर समताभाव बनाये रखना चाहिए। अतः महाबल द्वारा अपनाई गयी सल्लेखना-विधि का अनुकरण करते हुए हम सबको नरतन पाकर आत्म-जागृत होकर सल्लेखनापूर्वक देह त्याग कर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। मुझे भी ऐसी ही बुद्धि प्राप्त हो- यही भावना भाता हूँ। सन्दर्भ :1. पद्मपुराण, पर्व 14, श्लोक 199 2. वही, पर्व 14, श्लोक 203 3. वही, पर्व 14, श्लोक 204 4. हरिवंशपुराण, सर्ग 58, श्लोक 160-161 5. आदिपुराण : पर्व 5, श्लोक 234 6. वही, श्लोक 96 7. वही, श्लोक 97-98, तथा पर्व 5, श्लोक 234 8. वही, पर्व 5, श्लोक 230 पाण्डवपुराण : पर्व 9, श्लोक 127 9. आदिपुराण : पर्व 5, श्लोक 231 10. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 7. सूत्र 37 11. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 8 12. हरिवंशपुराण : सर्ग 56, श्लोक 184 13. वही, पृष्ठ 679 14. वही, पर्व 5, श्लोक 226, 230-231' 15. महापुराण, पर्व 5 ** तोहफा यूनान का राजा सिकन्दर जंब भारत-विजय की इच्छा से चला तो उसने अपने गुरु अरस्तू से पूछा- गुरुदेव ! आपके लिए भारत से क्या लाऊँ? अरस्तू बोले- मेरे लिए वहाँ से ऐसे गुरु लाना जो मुझे आत्मज्ञान दे सकें। गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुए राजा सिकन्दर भारत से दिगम्बर मुनि कल्याणजी को यूनान लेकर गये। यह उन्हीं की शिक्षा का फल था कि सिकन्दर ने अन्तिम समय में कहा था कि उसके हाथ कफन से बाहर रखे जायें, ताकि दुनिया वाले यह देख लें कि दुनिया से जाते समय कोई कुछ भी साथ लेकर नहीं जाता। इस पर एक कवि ने लिखा “सिकन्दर शहंशाह जाता, सभी हाली मवाली थे। सभी थी साथ में दौलत, मगर दो हाथ खाली थे।।" 1021 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004