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________________ सल्लेखना में स्थिर रखने का हर सम्भव प्रयत्न करते हैं। ___ आचार्य गृद्धपिच्छ' (आचार्य उमास्वामी) और आचार्य समन्तभद्र'' ने सल्लेखना को दूषित करने वाली जिन क्रियाओं का उल्लेख किया है उनका पुराणों में भी वर्णन मिलता है। पुराणों में इनके वे ही नाम दर्शाए गये हैं जिनका पूर्ववत आचार्यों ने उल्लेख किया है। पुराणों में इन्हें अतिचार न कहकर मल (दोष) कहा गया है। ये पाँच बताये गये हैं। वे हैं- 1. जीविताशंसा 2. मरणाशंसा 3. निदान 4. सुखानुबन्ध 5. मित्रानुराग। __पुराण-टीकाकार ने अतिचार अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि क्षपक का दीनचित्त होकर अधिक समय तक जीवित रहने की आकांक्षा—जीविताशंसा, पीड़ा से घबराकर जल्दी मरने की इच्छा—मरणाशंसा, आगामी भोगों की आकांक्षानिदान, पहले भोगे हुए सुखों का स्मरण—सुखानुबन्ध और मित्रों से प्रेममित्रानुराग दोष कहलाता है। निर्यापकाचार्य इन दोषों का बहुत ध्यान रखते हैं। वे सल्लेखना लेने वाले व्रती को इन दोषों से सावधान रखते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इन दोषों के अभाव में ही सल्लेखना सार्थक हो सकती है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के पूर्वभव के जीव महाबल ने अवधिज्ञानी मुनि आदित्यगति से अपनी आयु का क्षय ज्ञात कर विधिपूर्वक संन्यास धारण किया था। गुरु की साक्षी में जीवन पर्यन्त आहार-जल का त्याग तथा शरीर से ममत्व छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी। मन्त्री स्वयंबुद्ध को निर्यापकाचार्य बनाकर शत्रु-मित्र में समताभाव धारण किया था। परीषह ही उनसे पराजित हुए थे, परीषह उन्हें अपने कर्तव्य मार्ग से च्युत नहीं कर सके थे। उन्होंने लोकोत्तम सिद्ध परमेष्ठी को मस्तक पर और अरिहन्त परमेष्ठी को हृदय में धारण कर रखा था। उनके नेत्र मात्र परमात्मा को ही देखते थे। कान परम मन्त्र—णमोकार ही सुनते थे। जिह्वा परम मन्त्र का ही .पाठ करती थी। ध्यानरूपी तेज से मोहरहित होकर उन्होंने निरन्तर बाईस दिन में सल्लेखना विधि सम्पन्न की थी। आयु के अन्त में अपना मन विशेष रूप से पंच परमेष्ठी में लगाया था। हस्तकमल जोड़कर ललाट पर स्थापित किये और मन ही मन नमस्कार मन्त्र का जाप करते हुए म्यान से तलवार के समान शरीर से जीव को पृथक् विचारते हुए उन्होंने स्वयंबुद्ध मन्त्री के समक्ष शान्तिपूर्वक प्राण छोड़े एवं ऐशान स्वर्ग प्राप्त किया। वहाँ वे श्रीप्रभ नामक विमान में उपपाद शैय्या पर ऋद्धिधारी ललितांग नामक उत्तम देव हुए।'' महाबल के इस उदाहरण से यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य-देह पाकर उससे स्वहित करने में पीछे नहीं रहना चाहिए। मरण तो सुनिश्चित है और देह का छूटना भी। स्वयं छोड़ने और छूटने में बहुत अन्तर है। जिसका स्वयं त्याग किया जाता है उसमें हर्ष समाहित रहता है, जबकि परवशतावश छूटने में दुःख ही दुःख मिलता प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 101
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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