________________ मृत्यु की अवधारणा - भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य में पहचान नहीं हो पाती है। अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या यह नियम सभी मरने वालों पर समान रूप से लागू होता है या केवल कुछ विशेष लोगों तक ही सीमित रहता है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता को उद्धृत किया जा रहा है, जहाँ यह स्पष्ट निर्देश है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होगी और जो मरेगा उसका जन्म होना भी अनिवार्य है। इस कथन का पूर्वार्द्ध सर्वानुभव-सिद्ध है सार्वभौम एवं निर्विवाद है किन्तु उत्तरार्द्ध अर्थात् जो मरता है उसका जन्म होना भी निश्चित, निर्धारित एवं अनिवार्य है केवल शास्त्र-प्रमाण या श्रद्धा एवं विश्वास के आधार पर ही मान्य हो सकता है साथ ही साथ यह निर्विवाद भी नहीं है क्योंकि विश्व में अनेक ऐसी धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यतायें हैं जिनमें मृत्यु के बाद जन्म होने की बात स्वीकृत नहीं है। भारत के केवल उन धर्मों को यह मान्य हो सकता है जो कर्म के सिद्धान्त को अपनी दार्शनिकता एवं नैतिकता के आधार के रूप में स्वीकार करते हैं। गीता के दसवें अध्याय में विभूतियों के निरूपण के प्रसंग में भगवान् श्रीकृष्ण अपने को मृत्यु रूप में भी प्रस्तुत करते हैं जिसका कार्य सबका संहार करना हैं। यहाँ सर्व शब्द के अर्थ की सीमा विचारणीय है क्योंकि यह सामान्यतया सम्पूर्ण, समस्त या निःशेष का वाचक है। इससे यह ध्वनित होता है कि विश्व या ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है वह मृत्यु के प्रभाव के अन्तर्गत आता है और मृत्यु उसका अन्त करती है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन के विकास-क्रम को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि “स्वर्गकामो यजेत” एवं “स्वर्गकामोऽश्वमेधेन यजेत” आदि विधि-वाक्यों के आधार पर स्वर्ग को मृत्यु के प्रभाव से ऊपर माना जाता रहा है और स्वर्ग को मानव-जीवन के चरम लक्ष्य के रूप में मानकर उसकी प्राप्ति की विविध प्रक्रियाओं के विकास में चिन्तन एवं जीवन दोनों दीर्घ काल तक संलग्न रहे हैं। किन्तु विचार में प्रतितार्किकता के प्रभाव ने जब मत उपस्थित किया कि जैसे कर्मातीत लोक का विनाश होता है उसी प्रकार पुण्यार्जित लोक का विनाश अवश्य होता है। इसी पृष्ठभूमि में गीता का यह उद्घोष कि पुण्य के क्षीण होने पर स्वर्ग में रहने वाला मृत्यु लोक में आ जाता है, दार्शनिक चिन्तन को उद्वेलित कर चिन्ताग्रस्त बना देता हैं तथा दार्शनिकों को एक ऐसी कल्पना के लिए बाध्य करता है कि वे एक ऐसी स्थिति, अवस्था पद या स्थान को सुनिश्चित करें जो मृत्यु के प्रभाव से किसी प्रकार प्रभावित न हो सके। इस खोज में चार्वाक को छोड़कर भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय न केवल 5. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 6. यथा कर्मचितो लोकः क्षीयते तथैव पुण्यचितः लोकः क्षीयते। 7. क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति / 8. : अभेद्योऽयमच्छेद्योऽयऽशोष्य अदाहयो एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः / /