________________ उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता .. में मृत्यु की अवधारणा - प्रभुनाथ द्विवेदी यस्याचिन्त्यप्रभावेण सर्वभूतमयं जगत्। जन्ममृत्युवशं याति महाकालाय ते नमः / / 1 / / न कैश्चित्काम्यते मृत्युर्मृत्योर्नाम भयावहम्। तथापि यान्ति भूतानि मृत्योर्मुखे समन्ततः / / 2 / / यः कश्चिज्जायते लोके परलोकं प्रयाति सः। मृत्युरास्ते द्वयोर्मध्ये सेतुरूपः सनातनः / / 3 / / ध्रुवं सत्यं परिज्ञाय महायात्रास्थलं महत् / परित्यज्य भयं शोकं मृत्युं तरति वै नरः / / 4 / / कालकीनाशसम्बद्धो विषयो यः पूरस्कृतः / शास्त्रदृष्ट्या यथान्यायं तद्विवेको विधीयते।। 5 / / कौन ऐसा प्राणी है जिसमें जीवन के प्रति आग्रह और मृत्यु से उद्वेग नहीं होता? सभी जीवित रहना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। इससे बढ़कर आश्चर्य क्या होगा कि प्रतिदिन प्रतिक्षण न जाने कितने मनुष्य यममन्दिर जा रहे हैं किन्तु जो शेष हैं, उनमें जीवन की उत्कट अभिलाषा, जिजीविषा बनी रहती है। पंचदशीकार ने जीवन के प्रति इस आसक्ति को व्यक्त करते हुए कहा है - इयमात्मा परानन्दः परप्रेमास्पदं यतः / . वा न भूवं भूयासमिति प्रेमात्मनीक्ष्यते।। . . अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् / शेषाः जीवितुमिच्छन्ति कुत आश्चर्यमितः परम् / / - महाभारत 2. पंचदशी, प्रथम. प्रकरण (तत्त्वविवेक प्रकरण), 81