________________ मृत्यु के नाना प्रकार - व्रजवल्लभ द्विवेदी नित्याषोडशिकार्णव नामक त्रिपुरा-तन्त्र की दो टीकाओं के साथ हुए वाराणसी-संस्करण में - “न बाध्यते रोगैः कालमृत्युयमादिभिः” (5.33) यह वचन उपलब्ध है। भास्करराय की टीका में यह 34वाँ श्लोक है। यही ग्रन्थ कश्मीर में वामकेश्वरीमत के नाम से प्रकाशित है। इस पर अभिनवगुप्त के ग्रन्थ तन्त्रालोक के टीकाकार जयरथ ने विवरण नामक टीका लिखी है। यहाँ “यमादिभिः” के स्थान पर “भयादिभिः” पाठ भी मिलता है। अर्थरत्नावलीकार विद्यानन्द ने और विवरणकार ने भी इन शब्दों की कोई व्याख्या नहीं की है। ऋजुविमर्शिनीटीका के लेखक शिवानन्द मुनि ने “आदि” पद से व्याधि का ग्रहण कर काल, मृत्यु, यम और व्याधि शब्दों के अर्थ को बताने वाले दो श्लोक उद्धृत किये हैं - कालो मृत्युर्यमो व्याधिस्तत्त्वतस्त्वेक एव तु। वृत्त्यन्तरविशेषेण पर्यायेणाभिधीयते / / सर्वावच्छेदकः कालो मृत्युर्मारयिता च सः / यमनाद् यम एवायं व्याधिश्चिन्ताप्रदो हि सः / / यहाँ बताया गया है कि काल, मृत्यु, यम और व्याधि - ये सब वास्तव में एक ही तत्त्व के पर्यायवाची शब्द हैं; किन्तु प्रवृत्ति के भेद के अनुसार इनको ये अलग-अलग नाम दे दिये गये हैं। इसे काल इसलिए कहते हैं कि यह सबको अपने में समेट लेता है। इसे मृत्यु इसलिए कहा जाता है कि यह सबको मार डालता है। इसे यम इसलिए कहते हैं कि यह सब पर नियन्त्रण रखता है और इसे व्याधि इसलिए कहा जाता है कि व्याधि से ग्रस्त व्यक्ति को यह चिन्ता सताने लगती है कि कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। आदि पद से व्याधि के ग्रहण का यही आधार है। ..भास्करराय इस प्रकरण की व्याख्या भिन्न पद्धति से करते हैं। वे आदि पद से व्याधि के स्थान पर परकृत्या का ग्रहण करते हैं। उनका कहना है कि रोग और व्याधि में