________________ सिख धर्म में मृत्यु का स्वरूप - रेणु द्विवेदी "मृत्यु” जीवन का शाश्वत् सत्य है। जब तक जीवन है तब तक मृत्यु की भी सत्ता है। समस्त संसार जन्म एवं मृत्यु के चक्र में आबद्ध है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। इस शाश्वत् सत्य को स्वीकार करते हुए भी भारतीय परम्परा मृत्यु से अमरता की ओर चलने का संदेश देती है। भारतीय परम्परा अध्यात्मवादी है। असंतोष, पीड़ा, नश्वरता, सदा से ही भारतीय मनीषा को कचोटती रही है जिसके समाधान हेतु अध्येता मूल कारण के अन्वेषण में क्रियाशील रहे हैं। मैत्रेयी की जिज्ञासा - “किंऽहं तेन कुर्याम येनाऽमृतम् स्यात्” भारतीय चिन्तन यात्रा में मील का पत्थर है। भारतीय चिन्तक लघुता से पूर्णता की ओर जाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा है, सीमा बन्धन है उन्मुक्तता मुक्ति है। “मुक्ति की कामना समस्त भारतीय दार्शनिकों द्वारा समान रूप से स्वीकार की गयी है। मुक्ति के स्वरूप के विषय में दर्शनों में किञ्चित् भेद हो सकता है परन्तु समस्त धर्म-दर्शन "मुक्ति” को अपने जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार करते हैं। “मुक्ति” किससे हो? उत्तर स्पष्ट है सांसारिक दुःखों से। सांसारिक दुःख अनेक प्रकार के हैं जिसमें सर्वप्रमुख दुःख है जन्म-मरण का दुःख / इसी जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना भारतीय चिन्तकों का सर्वप्रमुख लक्ष्य रहा है। भारतीय चिन्तकों की अध्यात्मवादी दृष्टि केवल जगत् के क्रियाकलाप पर ही केन्द्रित न थी। संसार अतिशय दुःखमय है अतः दुःख के आत्यन्तिक निवारण का मौलिक उपाय खोज निकालना जीवन का चरम आदर्श है। यही कारण है कि बृहदारण्यक उपनिषद् (1.3.28) में प्रार्थना की गयी है - “असतो मा सद् गमय / तमसो मा ज्योतिर्गमय / मृत्योर्माऽमृतं गमय / " असत् से सत् की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर जाना ही मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। परन्तु मृत्यु तो शाश्वत् सत्य है। फिर मृत्यु से अमरता की ओर कैसे जाया जा सकता है? भारतीय चिन्तकों ने इस विषय पर सूक्ष्मता के साथ विचार किया है और जीव के वर्तमान जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्मों एवं आगामी जन्मों के विषय में भी व्यापक विमर्श किया है तथा अमरता के मार्ग को ढूँढ निकाला है।