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________________ 18 . मृत्यु की दस्तक बताई गई है। उसके अनुसार दश्युलोक रूपी अग्नि में श्रद्धा का हवन करने से सोम की उत्पत्ति होती है। उसके बाद परिर्जन्य रूपी अग्नि में सोम का हवन करने से वर्षा होती है। पृथ्वी रूपी अग्नि में वर्षा का हवन करने से अन्न की उत्पत्ति होती है। पुरुष के जठराग्नि में अन्न का हवन करने से वह अन्न रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्ति 'शुक्र' मेधस के रूप में सप्त धातुओं में परिणत हो जाता है। उसमें वीर्य-रूपी धातु को स्त्री-रूपी अग्नि में हवन करने से गर्भ की उत्पत्ति होती है। वह गर्भ जरायु नामक कोश से आवृत्त हुआ माता के उदर में दस मास तक पूर्ण विकसित होकर, बाद में मनुष्यरूपेण जन्म लेता है। उपनिषद् के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि जन्म लेने वाले अनंत जीव जल के रूप में पृथ्वी पर आ जाते हैं। विराट रूप से वह पानी बहते समय उसका उपयोग पशु, पक्षी, वनस्पति और मनुष्य करते रहते हैं। वह पानी जिसके भी शरीर में चला जाता है, उसके साथ अनंत जीव उस शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट अन्न-जल के साथ प्रविष्ट अनेक जीव सप्त धातुओं में परिवर्तित होते हुए शुक्र-रूपी धातु में जन्म लेने वाले अनंत जीव वीर्याणु के रूप में संग्रह होते हैं। उन अनंत वीर्याणुओं में एक बार एक ही वीर्याणु माता के अण्डकोश में प्रविष्ट होकर गर्भ में बढ़ने लगता है। अंवशिष्ट अनंत वीर्याणु नष्ट झे जाते हैं। उन नष्ट वीर्याणुओं को पुनः उसी प्रक्रिया से गुजरते हुए जन्म लेने के लिए आना पड़ता है। प्रपंच की यह सृष्टि और विनाश की प्रक्रिया भगवान की एक अलौकिक लीला ही मानी जाती है। इस लीला का सही-सही पता लगाना एक असंभव सी बात है। फिर भी मेधा सम्पन्न हमारे देश के महर्षियों ने मनुष्य के जन्म-मरण के बारे में और उसकी सद्गति के बारे में आयुष्य भर तपस्या करके जो कुछ भी संशोधन किया है वे दार्शनिक परम्परायें हो गयी हैं। हमारे देश के विभिन्न दार्शनिक परम्परा मैं कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हैं फिर भी प्रत्येक सिद्धान्त में जीवों के जन्म और मरण को सभी दार्शनिक मानते हैं। वीरशैव सिद्धान्त के प्रमुख ग्रंथ श्रीसिद्धान्तशिखामणि में - जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतश्यच / जन्तुर्मरण जन्माध्याम् परिभ्रमति चक्रवत्।। इस तरह जीवों के जन्म और मरण को चक्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इस सृष्टि में चौरासी लाख प्रकार के जीव-जन्तु होते हैं। इनमें उद्विज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज ये प्रत्येक इक्कीस लाख प्रकार के होते हैं। सब मिलकर चौरासी लाख हो जाते हैं। स्कंद पुराण में चौरासी लाख योनियों का विभाजन दूसरे ही ढंग से किया गया है - देवाः षोडशलसाणि नवलसाणि मानुषाः / दशर्भिदशभिस्तद्वज्जलजा विहगा मृगाः / / सरीसृपास्तु लक्षाणि एकादश चरेतराः / अष्टौ च दशलक्षाणि सर्प जन्मान्यमूनि वै।।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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